HomeBlogअपवाह तंत्र (Drainage System) छत्तीसगढ़ में ऊर्जा संसाधन (Energy Resources of Chhattisgarh) और अन्य

अपवाह तंत्र (Drainage System) छत्तीसगढ़ में ऊर्जा संसाधन (Energy Resources of Chhattisgarh) और अन्य

किसी भी क्षेत्र के आर्थिक विकास में नदियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। छत्तीसगढ़ में आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन में भी नदियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। राज्य को कृषि प्रधान बनाने में नदियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। राज्य के समृद्ध सिंचाई तंत्र से ही कृषि समृद्ध होती है। देश को महत्त्वपूर्ण अपवाह प्रणाली छत्तीसगढ़ से प्रवाहित होती है. जैसे गंगा, नर्मदा, गोदावरी, महानदी इत्यादि।

  1. अपवाह क्षेत्रः किसी भौगोलिक क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली नदी और उसकी सहायक नदियों को अपवाह प्रणाली कहते हैं। अपवाह प्रणाली समुद्र और भूमि के बीच जल के बहाव का एक चक्र है। किसी क्षेत्र की उर्वरता एवं विकास नदियों के बहाव पर निर्भर होता है।
  2. जल विभाजकः उच्च भूमि से उद्गम होने वाली दो नदियों के अलग-अलग दिशा में बहने वाली नदियों के उद्गम क्षेत्र को जल विभाजक कहते हैं।
  3. सहायक नदीः जब कोई छोटी नदी मुख्य नदी में जाकर समाहित हो जाती है तो उस नदी को मुख्य नदी की सहायक नदी कहते हैं।
  4. संगमः दो नदियों के मिलन स्थल को संगम कहते हैं।
  5. स्रोतः जिस स्थान से किसी नदी का उद्गम होता है. उसे उस नदी का स्रोत कहा जाता है। • मुहानाः जब कोई नदी समुद्र या झोल में जाकर मिल जाती है तो उसे उस नदी का मुहाना कहा जाता है।
  6. अपवाह प्रणाली के अध्ययन से हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि उस क्षेत्र की कृषि, उद्योग और शहरीकरण.

जलविद्युत परियोजना की उपलब्धता कैसी है? अपवाह प्रणाली को दो भागों में बाँटा जा सकता है- (1) हिमालयीय अपवाह प्रणाली

(2) प्रायद्वीपीय अपवाह प्रणाली

छत्तीसगढ़ प्रायद्वीपीय अपवाह प्रणाली का हिस्सा है। इसकी विशेषताएँ निम्न है-

  1. प्रायद्वीपीय अपवाह प्रणाली, हिमालयीय अपवाह प्रणाली से प्राचीन है।
  2. प्रायद्वीपीय अपवाह प्रणाली में नदियों का एक निश्चित बहाव हुआ है।
  3. इस क्षेत्र में झील और जल के बहाव के कारण जल संग्रहण का अभाव है, जिससे ग्रीष्मऋतु में सूखाग्रस्त क्षेत्र ज्यादा दिखाई देता है।

2.1 छत्तीसगढ़ के अपवाह तंत्र (Drainage System of Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ में जल के विभाजन से अपवाह प्रणाली बनी है। दूसरे राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में नदियों का बहाव धीमा है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ का मध्य भाग नदियों से सिंचाई सुविधा अधिक होने के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न है।

छत्तीसगढ़ के भौगोलिक क्षेत्र को चार अपवाह प्रणालियों में बाँटा जाता है

  1. महानदी अपवाह तंत्र
  2. गोदावरी अपवाह तंत्र
  3. गंगा अपवाह तंत्र
  4. नर्मदा अपवाह तंत्र

महानदी अपवाह तंत्र

यह राज्य की सबसे बड़ी अपवाह प्रणाली है. जो महानदी और उसकी सहायक नदियों से मिलकर बनी है। इसका अपवाह क्षेत्र 75,858 वर्ग किमी. है जो कुल अपवाह तंत्र का 56.11 प्रतिशत है। इस नदी का विसर्जन बंगाल की खाड़ी में होता है। इसकी बड़ी अपवाह प्रणाली होने के कारण इसका विस्तार छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में है, जिसमें धमतरी, कांकेर, गरियाबंद, रायपुर, महासमुंद, दुर्ग, बालोद, कबीरधाम, राजनांदगाँव, सरगुजा, कोरबा, जांजगीर-चांपा तथा रायगढ़ जिले शामिल हैं। इस अपवाह प्रणाली में महानदी और उसकी सहायक नदियों में पैरी, सोहर, जोंक, शिवनाथ, लात तथा मांड प्रमुख हैं।

जलवायु (Climate)

छत्तीसगढ़ की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी प्रकार की है। कर्क रेखा राज्य के उत्तरी जिलों (कोरिया, सूरजपुर और बलरामपुर) से होकर गुजरती है, जिसका पर्याप्त प्रभाव यहाँ की जलवायु पर पड़‌ता है। इसके अलावा समुद्र से दूरी का भी यहाँ की जलवायु पर पर्याप्त प्रभाव है। इस कारण यहाँ की जलवायु को महाद्वीपीय प्रकार की जलवायु भी कहा जा सकता है। संपूर्ण प्रदेश की जलवायु में आंशिक भिन्नता है, जो समय-समय पर वर्षा, तापमान आदि में अंतर के रूप में परिलक्षित होती है। इसे जलवायु के आधार पर छत्तीसगढ़ के प्रादेशिक वर्गीकरण से समझा जा सकता है। जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक निम्न हैं-

  1. भूमध्य रेखा से दूरी
  2. समुद्र और भूमि से हवा का बहाव
  3. वनस्पति एवं मिट्टी
  4. समुद्र से दूरी
  5. समुद्री जलधारा
  6. समुद्र तल से ऊँचाई
  7. पर्वत श्रेणी की दिशा

छत्तीसगढ़ की जलवायु में सभी प्रकार की मानसूनी विशेषताएँ हैं। मानसून के अनुसार छत्तीसगढ़ आई शुष्क जलवायु के अंतर्गत आता है। कर्क रेखा छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग से गुजरने के कारण यहाँ की जलवायु को अधिक प्रभावित करती है।

छत्तीसगढ़ का जलवायु के आधार पर वर्गीकरण

मूलतः छत्तीसगढ़ की जलवायु उष्ण कटिबंधीय मानसूनी प्रकार की ही है. लेकिन भौगोलिक विस्तार और विविधता के परिणामस्वरूप प्रदेश के उत्तर से दक्षिण तक जलवायु में थोड़े बहुत अंतर दिखाई देते हैं। इन्ही थोड़े बहुत अंतरों के आधार पर प्रदेश की जलवायु का वर्गीकरण करते हुए इसे तीन भागों में बाँटा गया है-

  1. उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रः कोरिया, सूरजपुर, बलरामपुर, जशपुर, अम्बिकापुर और उत्तरी कोरबा में विस्तृत इस क्षेत्र से कर्क रेखा गुजरती है। इसीलिये इस क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु में गर्मी तेज होती है जबकि शीत ऋतु में यहाँ का तापमान प्रदेश में सबसे कम होता है।
  2. छत्तीसगढ़ का मैदानः मूलतः यह महानदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा निर्मित मैदानी क्षेत्र है। प्रदेश में सर्वाधिक गर्मी इसी क्षेत्र में पड़ती है। यहाँ जांजगीर चांपा जिला सर्वाधिक गर्म होता है। सर्दियों में सामान्य ठंड पड़ती है।
  3. बस्तर क्षेत्रः यह पहाड़ी क्षेत्र है, जहाँ सदी और गर्मी दोनों अधिक होती है। वनाच्छादित पहाड़ियों की अधिकता के कारण यहाँ की जलवायु ठंडी और अधिक वर्षा के कारण नम है।

ऋतुएँ

ऋतुओं का संबंध सामान्य मौसम चक्र से है। प्रदेश का मौसम आमतौर पर तीन ऋतुओं में ही अपनी विशेषताएँ दर्शाता है। 1. वर्षा ऋतुः वर्षा ऋतु का सामान्य काल जून से सितंबर है। समयानुसार, सर्वाधिक वर्षा (अधिकांशतः) जुलाई में होती है। प्रदेश में दिसंबर-जनवरी माह में चक्रवाती वर्षा भी होती है। मानसूनी वर्षा बंगाल की खाड़ी शाखा से एवं अरब सागर से जल प्राप्त करती है (अर्थात् दोनों शाखाओं से प्रदेश में वर्षा होती है। यहाँ वर्षा की मात्रा में विषमता भी मौजूद है। पश्चिमी क्षेत्र दुर्ग, राजनांदगाँव आदि में वर्षा कम होती है। प्रदेश में कुल वार्षिक 120 से.मी. से 187.5 से.मी. तक वर्षा होती है। औसत वार्षिक वर्षा 130 से.मी.। सर्वाधिक वर्षा अबूझमाड़ (187.5 सेमी.) में होती है जिसे छत्तीसगढ़ का चेरापूँजी भी कहते हैं। बस्तर के बाद सरगुजा जशपुर सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र है। राजनांदगाँव के पश्चिम में मैकाल श्रेणी का पूर्वी भाग वृष्टि छाया प्रदेश है। इसमें लोरमी पठार का कुछ क्षेत्र भी शामिल है। 2. शीत ऋतुः नवंबर-फरवरी का काल शीत ऋतु के अंतर्गत होता है। इस दौरान सर्वाधिक ठंड पाट प्रदेश में होती है। जहाँ मैनपाट का तापमान 0° से. तक पहुँच जाता है। इस ऋतु में भी यहाँ थोड़ी बहुत वर्षा हो जाती है जिसके

छत्तीसगढ़ की मिट्टियाँ (Soils of Chhattisgarh)

मिट्टी पृथ्वी को ऊपरी परत में स्थित काले भूरे रंग का तथा विभिन्न प्रकार की धातुओं का मिश्रण है। मिट्टी कृषि तथा वनस्पतियों के लिये महत्त्वपूर्ण है। छत्तीसगढ़ की मिट्टी की एक सामान्य विशेषता उनमें नमी का कम होना है, क्योंकि इसमें रेत की मात्रा सामान्यतः अधिक होती है जिसके कारण मिट्टी में जलधारण की क्षमता कम है। मिट्टी में भौतिक तथा रासायनिक विशेषताओं के कारण अनेक प्रभाव पड़ते हैं।

  1. जलवायुः तापमान, भूमि की उच्चावच, ढाल इत्यादि कारणों से मि‌ट्टी पर जलवायु का प्रभाव पड़ता है। इन्हीं सब कारणों
  2. से मिट्टी में खनिज तथा भूमि की उर्वरता इत्यादि का निर्धारण होता है। जलवायु एवं वर्षा की उपलब्धता से मिट्टी का उपजाऊपन तथा वनस्पतियों की सघनता का निर्धारण होता है।
  3. जीवाश्मः मिट्टी विभिन्न प्रकार के तत्त्वों का स्रोत है. जिसमें उस क्षेत्र को जीवित प्राणियों (जीव और जंतु का) की उपस्थिति का पता चलता है। मिट्टी में जीवाश्म की उपस्थिति एवं विभिन्न प्रकार के खनिज तत्त्वों से उस क्षेत्र की आर्थिक एवं सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।

छत्तीसगढ़ भारत के दक्षिणी पठार का हिस्सा है एवं विभिन्न नदियों के बहाव के कारण यहाँ की मिट्टी उपजाऊ हैं। इस कारण छत्तीसगढ़ में कृषि की समृद्ध उपज होती है। भारतीय भूमि एवं मृदा संरक्षण विभाग ने छत्तीसगढ़ में पाँच प्रकार की मिट्टियों की पहचान की है।

  1. काली मिट्टीः इस मिट्टी के निर्माण में बेसाल्ट (दक्कन ट्रैप) च‌ट्टानों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसका रंग काला होता है क्योंकि, बेसाल्ट के ऋतु क्षरण के पश्चात् लोहे के कणों का ऑक्सीकरण होता है और उसका रंग लाल तो हो जाता है। इसके पश्चात् क्ले (मुलिका) के एकत्रण से मिट्टी का रंग काला हो जाता है। अन्य शब्दों में कहें टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट एवं जैव तत्त्वों की उपस्थिति के कारण इसका रंग काला होता है। ,

लोहा चूना, पोटाश, एल्यूमिनियम, कैल्सियम व मैग्नीशियम कार्बोनेट प्रचुर मात्रा में एवं नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं जैव तत्त्वों की उपस्थिति पर्याप्त मात्रा में होती है। अतः यह उपजाऊ मिट्टी है। इस मिट्टी के मुंगेली, पण्डरिया, कवर्धा एवं राजनांदगाँव इसके फैलाव वाले मुख्य क्षेत्र हैं। गेहूँ, चना, कपास, दाल, तिलहन (सोयाबीन) एवं धान की फसल इसमें आमतौर पर होती है। छत्तीसगढ़ में इसे स्थानीय नाम से ‘कन्हारी मिट्टी’ भी कहते हैं।

  1. लाल-पीली मिट्टीः यह मिट्टी गोंडवाना क्रम की चट्टानों से निर्मित है। इस मिट्टी का पीला रंग संभवतः फेरिक ऑक्साइड के जलयोजन के कारण होता है, जबकि लाल रंग लोहे के ऑक्साइड के कारण। इस मिट्टी में सामान्यतः ह्यूमस तथा नाइट्रोजन की कमी होती है। यही कारण है कि इसकी उर्वरता अधिक नहीं होती तथा पी.एच. मान 5.5 से 8.5 तक होता है। बस्तर में अधिकतर मिट्टियाँ अम्लीय हैं।

छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक विस्तार इसी मिट्टी का है। इसका विस्तार प्रदेश में यहाँ-वहाँ बिखरे रूप में है। लेकिन, ये मुख्यतः कोरिया, सरगुजा, जशपुर, रायगढ़, जांजगीर चाँपा, कोरबा, बिलासपुर, कवर्धा, दुर्ग, रायपुर, महासमुंद एवं धमतरी जिलों में पाई जाती है।

यह मिट्टी धान की फसल के लिये उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा अलसी, तिल, ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी के लिये भी उपयुक्त होती है। स्थानीय नाम से ‘मटासी’ मिट्टी का विस्तार इसी क्षेत्र में मिलता है। कई बार इसे ही स्थानीय नाम (मटासी) दे दिया जाता है।

III, लाल रेतीली या बलुई मिट्टीः सामान्यतः इनमें ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानों के अवशेष मिश्रित हैं। इस मिट्टी का लाल रंग आयरन के ऑक्साइड के कारण होता है तथा रंत की मात्रा अधिक होने के कारण यह लाल रेतीली मिट्टी कहलाती है।

इसमें लौह अंश अधिक पाया जाता है जबकि नाइट्रोजन एवं ह्यूमस कम होता है. इसी कारण इसकी उर्वरता कम होती हैं। ये छत्तीसगढ़ की दूसरी सर्वाधिक फैलाव वाली मिट्टी है। मुख्यतः राजनांदगाँव, कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और बस्तर जिलों में पाई जाती है। कोदो कुटकी, ज्वार, बाजरा, आलू, तिलहन आदि।

वनस्पति एवं वन्य जीव (Vegetation and Wildelife)

  1. छत्तीसगढ़ राज्य का भौगोलिक लगभग क्षेत्रफल 1,35,191 वर्ग किलोमीटर है, जो कि देश के क्षेत्रफल का 1 प्रतिशत है। प्रदेश का वन क्षेत्रफल लगभग 59,772 वर्ग किलोमीटर है, जो कि प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 44.2 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ राज्य वन क्षेत्रफल की दृष्टि से देश में चौथे स्थान पर है। राज्य के वन आवरण की दृष्टि से छत्तीसगढ़ का देश में तीसरा स्थान है।
  2. भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 38 प्रतिशत भाग वनाच्छादित है, जबकि छत्तीसगढ़ में वनों का क्षेत्रफल कुल भौगोलिक क्षेत्र का 44.21 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ का वन क्षेत्र भारत में चतुर्थ स्थान पर है।

योग

  1. वानिकी की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भागीदारी देखी जा सकती है, यदि इसे पूर्ण ढंग से लट्ठा, ईंधन की लकड़ी का संग्रहण, गैर-इमारती लकड़ी एवं वनोत्पाद से ग्रामीण आय तथा जीवन निर्वाह आरंभ करने की दृष्टि से अवलोकित किया जाए। वन कार्बन अवशोषण कर ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन से मौसम परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वन पर्यावरण सेवाओं तथा अन्य उत्पादक क्षेत्रों को लाभान्वित करने का भी स्रोत है (यथा बहाव कृषि के लिये वाटरशेड संरक्षण, वनाधारित मनोरंजन एवं पर्यटन)। अतः बहुत अधिक वन क्षेत्र न केवल राज्य को बल्कि पूरे देश को उसके महत्त्वपूर्ण आच्छादन द्वारा भी लाभ पहुंचाता है।
  2. यहाँ के पर्याप्त वनों और वृक्षों से स्थायी पर्यावरण की स्थिति है. जो कि धारण योग्य कृषि उत्पादन के लिये सहायक है। जंगलों के कारण मिट्टी का क्षरण कम हुआ है तथा इनकी रिसाइक्लिंग से पोषक तत्त्वों का विकास हुआ है। इनसे छत्तीसगढ़ के जल प्रवाह की रक्षा हुई है तथा नदियों के प्रवाह सूखे नहीं। छत्तीसगढ़ के जंगल पौधों तथा पशुओं के स्टोर हाउस हैं। प्रदेश की जैविक विविधता के लिये इसका योगदान महत्त्वपूर्ण है।

5.1 वनों का वर्गीकरण (Classification of Forests)

प्रशासन अथवा प्रबंधन एवं संरक्षण की दृष्टि से-

  1. आरक्षित वनः ये ऐसे वन क्षेत्र हैं, जहाँ अनाधिकृत प्रवेश, लकड़ी काटना, पशुचारण प्रतिबंधित होता है। राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य और बायोस्फियर रिज़र्व भी इनमें शामिल होते हैं। कुल आरक्षित वन आरक्षित क्षेत्रफल 782 वर्ग कि.मी. है. जो कुल वन क्षेत्र का 43.13 प्रतिशत है।
  2. संरक्षित वनः कुल वनों में इनकी भागीदारी 24036 वर्ग कि.मी के साथ 22 प्रतिशत है। यहाँ शासकीय अनुमति से कटाई, चराई आदि की जा सकती है।
  3. अवर्गीकृत वनः उपर्युक्त दोनों वनों के बाद बचा हुआ वन क्षेत्र अवर्गीकृत कहलाता है। ऐसे वन क्षेत्र उपयोग के लिये खुले होते हैं. किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। इनका हिस्सा 13 वर्ग कि.मी., जो कुल वन क्षेत्रफल का 16.65 प्रतिशत है।

कृषि (Agriculture)

फसलों की उत्पादकता प्रमुख रूप से मि‌ट्टी की उर्वरक क्षमता, जलवायु तथा सिंचाई संसाधनों पर निर्भर होती हैं। राज्य में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती है, जिसमें खाद्यान्न, तिलहन तथा दाल प्रमुख फसल हैं। प्रदेश में सभी प्रकार की

फसलों की खेती की जाती है, किंतु मुख्य कृषि खरीफ फसल की होती है। रबी एवं जायद फसलें अपेक्षाकृत कम की जाती हैं। इस तरह प्रदेश में अधिकांशतः कृषि एक फसली होती है।

छत्तीसगढ़ राज्य की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या का जीवनयापन कृषि पर निर्भर है। प्रदेश के 37.46 लाख कृषक परिवारों में से 76 प्रतिशत लघु एवं सीमांत श्रेणी में आते हैं। वर्तमान में प्रदेश के सभी सिंचाई स्रोतों से लगभग 36 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है जिसमें से सर्वाधिक 52 प्रतिशत क्षेत्र जलाशयों/ नहरों के माध्यम से सिंचित है एवं 29 प्रतिशत क्षेत्र नलकूप से सुनिश्चित सिंचाई के अंतर्गत आते हैं, जो अधिकांशतः वर्षा पर निर्भर हैं। प्रदेश के लगभग 55 प्रतिशत काश्त भूमि की जलधारण क्षमता कम होने के कारण, बिना सिंचाई साधन के दूसरी फसल बोना संभव नहीं है। राज्य निर्माण के समय इस प्रदेश में आवश्यक संरचनाएँ तथा बीज प्रक्रिया केंद्र, प्रशिक्षण केंद्र, खाद एवं गोदाम आदि का अभाव था, इसलिये राज्य में विभिन्न फसलों की उत्पादकता, अन्य विकसित राज्यों की तुलना में कम थी। राज्य गठन के पश्चात् कृषि विकास के कार्यक्रमों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने तथा राज्य शासन के कृषकोन्मुखी योजनाओं/कार्यक्रमों के फलस्वरूप कृषि विकास की गति में तेजी आई है एवं किसानों की आर्थिक उन्नति हेतु निरंतर प्रभावी प्रयास किये जा रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में मानवीय विशेषताएँ (Human Characteristics in Chhattisgarh)

जनगणना संघ सूची का विषय है। इसकी चर्चा संविधान के अनुच्छेद 246 में की गई है। 2011 की जनगणना देश की 15वीं जनगणना है तथा स्वतंत्र भारत की 7वीं जनगणना है। जनगणना की महत्ता को देखते हुए संघ सरकार ने 1961 में ‘जनगणना विभाग’ की, स्थापना की जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करता है। ब्रिटिश भारत में 1872 ई. के लार्ड मेयो के शासनकाल में पहली जनगणना हुई तथा 1881 ई. में लॉर्ड रिपन के कार्यकाल से इसने निरंतरता प्राप्त की। भारत सरकार द्वारा इस परंपरा को जारी रखते हुए प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर देश की जनगणना करवाई जाती है।

किसी भी देश की मानव संसाधन उस देश की बहुमूल्य पूंजी होती है। मानव संसाधन के समुचित उपयोग एवं वहां उपस्थित प्रकृतिक संसाधनों से जनसंख्या की गणना की जाती है।

छत्तीसगढ़ में आधुनिक जनगणना का इतिहास

छत्तीसगढ़ 1 नवंबर, 2000 को अस्तित्व में आया। 1 नवंबर, 1956 से लेकर अस्तित्व में आने के पहले तक यह मध्य प्रदेश का हिस्सा था। 1 नवंबर, 1956 के पहले यह महाकौशल क्षेत्र में शामिल रहकर सी.पी. एण्ड बरार का हिस्सा था। वर्ष 1941 में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जनगणना बिहार के साथ तथा 1951 में पुराने मध्य प्रदेश (सी.पी. एण्ड बरार) में हुई थी। पहले मात्र छः जिले बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा थे। दिनांक 5 जनवरी, 1973 को दुर्ग जिले से अलग एक नया जिला राजनांदगाँव बनाया गया। तत्पश्चात् मई 1998 में सरगुजा जिले से कोरिया, बिलासपुर से कोरबा और जांजगीर-चांपा, रायगढ़ से जशपुर, रायपुर से धमतरी और महासमुंद तथा बस्तर से कांकेर और दंतेवाड़ा नये जिले बनाये गये। जुलाई 1998 में राजनांदगाँव जिले से एक और नया जिला कवर्धा बना और बिलासपुर जिले का कुछ भाग सम्मिलित किया गया। 1991 की जनगणना के समय छत्तीसगढ़ में कुल सात जिले थे, परंतु जनगणना 2011 में राज्य में कुल जिलों की संख्या 18 हो गई। वर्तमान में राज्य में 27 जिले हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के समय राज्य में 16 जिले थे।

कुल जनसंख्या एवं वितरण

2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 2,55,45,198 है जो देश की कुल जनसंख्या का 2.11 प्रतिशत है तथा 16 वाँ स्थान है। राज्य में सबसे अधिक जनसंख्या वाला जिला रायपुर है जिसकी कुल जनसंख्या 21 लाख है दूसरे स्थान पर बिलासपुर-19 लाख, तीसरे नंबर पर दुर्ग 17 लाख है। नारायणपुर, सुकमा तथा बीजापुर राज्य में न्यूनतम जनसंख्या वाला जिला है।

छत्तीसगढ़ की अधिकतम जनसंख्या छत्तीसगढ़ के मध्य भाग में निवासरत है। यह क्षेत्र राज्य के दूसरे क्षेत्रों से अधिक विकसित क्षेत्र है। मध्य भाग से महानदी के बहाव के कारण यहाँ सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। जिससे उर्वर भूमि और कृषि का विकास अधिक हुआ । माना जाता है। इसलिये इस सभी छोटी-बड़ी उद्योगों का विकास इसी क्षेत्र में हुआ। इसलिये यह क्षेत्र राज्य का आर्थिक केंद्र क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियां मानव संसाधन को मांग रहता है।

भौगोलिक दृष्टि से भी इस क्षेत्र का मैदान मानव बसाहट के लिये महत्त्वपूर्ण है। यह क्षेत्र मुंम्बई-हावड़ा रेलामार्ग पर स्थित है। यहाँ की सड़क व्यवस्था राज्य के सभी क्षेत्रों तथा पड़ोसी राज्यों से जुड़ी हुई है। रायपुर स्थित हावई अड्‌डा तथा राज्य के अन्य प्रमुख हावई अड्‌डा देश के प्रमुख शहरों को जोड़ती है। यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण है।

इस क्षेत्र में लाल रेतीली मिट्टी होने के कारण कृषि के लिये अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में सिंचाई सुविधा का भी विकास नहीं हुआ। पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्र होने के कारण पहुंच मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। आदिवासी क्षेत्र होने के कारण उद्योग एवं कृषि मशीनों की पहुँच नहीं है, क्योंकि आज भी आदिवासी समाज हस्तांतरित कृषि करते हैं। स्वास्थ्य एवं यातायात की सुविधा इस क्षेत्र के विकास के लिये आवश्यक है। इस क्षेत्र में खजिन संसाधनों की उपलब्धता तो है परंतु उचित योजना और उद्योंगों का विकास न होने के कारण क्षेत्रीय विकास में बाधक है। स्वास्थ्य सुविधा के अभाव के कारण इस क्षेत्र में उच्च मृत्यूदर है। उचित चिकित्सा सुविधा के लिये इस क्षेत्र के लोगों को राज्य एवं देश के बड़ी शहरो

खनिज संसाधन (Mineral Resources)

छत्तीसगढ़ की प्रकृति इस बहुमूल्य देन से अन्य राज्यों की अपेक्षा कहीं अधिक संपन्न है। राज्य के विभिन्न भागों में कोयला, मैंगनीज, चूना पत्थर, फायर क्ले, कच्चा लोहा, ग्रेफाइट, बॉक्साइट, अभ्रक, सिलिक, डोलोमाइट, क्वार्टजाइट, कोरंडम, स्वर्णधातु, हीरा, एलेक्जेन्ड्राइट, बैरिल फर्शीपत्थर, निकिल, क्रोमियम, सीसा तथा चांदी आदि अनेक खनिज विपुल मात्रा में पाए जाते हैं। राज्य के लिये किस खनिज पदार्थ का कितना महत्त्व है, यह उसकी प्राप्ति, उपयोगिता व राष्ट्र अथवा विश्व में ऐसे खनिज पदार्थ की पाई जाने वाली मात्रा में हमारे योगदान पर निर्भर करता है।

8.1 छत्तीसगढ़ में खनिज भंडार (Mineral Reserves in Chhattisgarh)

  1. कोयलाः ऊर्जा का प्रमुख स्रोत कोयला, प्रदेश के खनिज राजस्व में 48.11 प्रतिशत योगदान कर रहा है। राज्य में कोयले के 56,036 मिलियन टन भंडार हैं, जो कि राष्ट्र के कोयला भंडार का 18.15 प्रतिशत है। राष्ट्र के कोयला उत्पादन में छत्तीसगढ़ की सहभागिता 21.01 प्रतिशत है। कोयला उत्पादक राज्यों में छत्तीसगढ़ का द्वितीय स्थान है। वर्ष 2017-18 में 1425.10 लाख टन कोयले का उत्पादन हुआ। वर्ष 2018-19 में नवंबर 2018 तक 1002.11 लाख टन का उत्पादन हुआ है। प्रदेश में उत्पादित कोयले का उपयोग राष्ट्र तथा प्रदेशस्तरीय वृहत् ताप संयंत्रों के अतिरिक्त सीमेंट एवं इस्पात उद्योगों में हो रहा है।

छत्तीसगढ़ को कोयले से सर्वाधिक राजस्व की प्राप्ति कोरबा जिले से होती है। कोयले के सर्वाधिक भंडार रायगढ़ जिले में मौजूद है तथा सर्वाधिक यंत्रीकृत कोयला खदान कोरबा जिले के कुसमुंडा, गेवरा एवं कोरबा माइंस क्षेत्र में

है। छत्तीसगढ़ में कोयला खनिज की प्राप्ति गोंडवाना लैंड की च‌ट्टानों से होती है तथा यहाँ कोयले का बिटुमिनस प्रकार का खनिज पाया जाता है। राज्य में भिलाई स्टील प्लांट को कोयले की सप्लाई कुसमुंडा एवं गेवरा माइंस से होती है। कोयले के उत्खनन के लिये छत्तीसगढ़ में SECL की स्थापना 1987 में की गई थी, जिसका मुख्यालय बिलासपुर जिले में स्थित है तथा उत्खनन के लिये एक अन्य कोयला कंपनी महानदी कोल फील्ड्स लिमिटेड, रायगढ़ जिले में भी स्थित है जो कि मांड नदी घाटी क्षेत्र में कोयला खनन का में कार्य करती है।

उत्तरी क्षेत्र की कोयले की पट्टी (क) सरगुजा जिलेः अविभाजित सरगुजा जिले में कोयले का सर्वाधिक भंडार है। यहाँ सोनहट, झिलमिली. रामकोला-तातापानी तथा विश्रामपुर आदि में कोयले का भंडार है।

  1. सोनहट क्षेत्रः यह सरगुजा से होते हुए कोरिया तक विस्तृत है। भूगर्भीय बनावट की दृष्टि से यह सोहागपुर क्षेत्र का भाग है। यहाँ निम्नतम परत लगभग 4 मीटर मोटी है तथा59 मीटर मोटी चट्टानों के ऊपर पुनः 1.4 मीटर मोटी तह है। निचली तह में उत्तम श्रेणी के कोयले का भंडार है यह ‘सेमी कोकिंग कोल’ है। इस क्षेत्र में कोयले का भंडार लगभग 465.7 लाख टन है।
  2. झिलमिली क्षेत्रः तातापानी-रामकोला क्षेत्र के ठीक दक्षिण में चिरमिरी स्टेशन है। 48 किलोमीटर दूर इस झिलमिली क्षेत्र का क्षेत्रफल 180 वर्ग किमी. है। यहाँ कोयले की पाँच परतें हैं।
  3. झगराखंड क्षेत्रः यह सोहागपुर क्षेत्र का दक्षिणीपूर्वी विस्तार है, जो लगभग 77 वर्ग किमी. में व्याप्त है। यहाँ कोयले की दो परतें मिलती हैं। यहाँ 1921 से 11 खदानों में उत्खनन किया जा रहा है।

विश्रामपुर क्षेत्रः मध्य सरगुजा में इस कोयला क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल 1000 वर्ग किमी. है। यहाँ कोयले की अनेक परतें हैं। यहाँ नेशनल कोल डेवलपमेंट की खदान है. जिसको उत्खनन क्षमता 37,000,00 टन है।

तातापानी-रामकोला क्षेत्रः यह सरगुजा जिले के उत्तर-पूर्वी कोने पर 260 वर्ग किमी. वाला क्षेत्र है। यहाँ कोयले की तीन परतें हैं, जो क्रमशः 1 मीटर, 2 मीटर तथा 2.4 मीटर मोटी हैं। यहाँ से प्राप्त होने वाला कोयला सामान्य किस्म का है तथा खपत क्षेत्र से दूर होने के कारण यहाँ उत्पादन नहीं होता।

छत्तीसगढ़ में ऊर्जा संसाधन (Energy Resources of Chhattisgarh)

आर्थिक विकास में विद्युत की उपलब्धता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह औद्योगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ-साथ व्यक्ति विशेष के जीवन स्तर को भी बेहतर करती है। संपत्ति निर्माण एवं विद्युत उपयोग में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। राज्य में अनुकूल परिस्थितियों, संसाधनों की प्रचुरता आदि के कारण विद्युत क्षेत्र में तीव्र वृद्धि परिलक्षित हो रही है।

राज्य निर्माण के पश्चात् छत्तीसगढ़ राज्य ने वर्ष 2000 से अभी तक विद्युत उत्पादन का केंद्र बनने में लंबा सफर तय किया है। यह राज्य देश में तापीय कोयले के सबसे बड़े उत्पादकों में एक है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) एवं छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी से प्राप्त सूचना अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य में 31 अक्टूबर, 2018 की स्थिति में 3280 मेगावाट तापीय, 132 मेगावाट जलीय, 6 मेगावाट अन्य ऊर्जा स्रोत से इस प्रकार कुल 3424.70 मेगावाट बिजली राज्य को प्राप्त हुई है।

स्थापित क्षमता में अधिकांश बढ़ोतरी निजी क्षेत्र में हो रही है। राज्य को स्वयं को तापीय एवं जलीय विद्युत क्षमता पिछले 18 वर्ष में लगातार बढ़कर नवंबर 2018 की स्थिति में 3424.70 मेगावाट हो गई है।

विद्युत, गैस एवं जल आपूर्ति का सकल राज्य घरेलू उत्पाद में योगदान (स्थिर भाव 2011-12) परंपरागत ऊर्जा

  1. छत्तीसगढ़ ताप ऊर्जा
  • राज्य विद्युत आपूर्ति के लिये छत्तीसगढ़ ताप विद्युत मंडल की स्थापना 15 नवंबर, 2000 को की गई।
  • छत्तीसगढ़ ताप विद्युत मंडल का मुख्यालय रायपुर में स्थित है।
  • छत्तीसगढ़ ताप विद्युत मंडल की ऊर्जा क्षमता
  • राज्य गठन के समय
  • जल विद्युत 138.70 मेगावाट

राज्य विद्युत मंडल के संयंत्रों का उत्पादनः सर्वप्रथम मंडल द्वारा 1958 में कोरबा-1 भिलाई संयंत्र को आपूर्ति हेतु स्थापित किया गया था, किंतु वर्तमान में इसका उत्पादन बंद है। कोरबा में ही चार इकाइयों वाला 200 मेगावाट क्षमता का एक केंद्र कोरबा-II राज्य विद्युत मंडल द्वारा 1966 में स्थापित हुआ, ताकि भिलाई की बढ़ती माँग, बैलाडीला की लौह उत्खनन, रेलवे विद्युतीकरण तथा सीमेंट, कागज, एल्यूमिनियम, कपड़ा उद्योगों को शक्ति प्राप्त हो सके। इस केंद्र के विकास से दक्षिण में जगदलपुर, दंतेवाड़ा तथा उत्तर में सरगुजा के उत्खनन केंद्र व अधिवासों को विद्युत मिलने लगी है। 240 मेगावाट की एक अन्य इकाई कोरबा III स्थापित है। हसदेव ताप विद्युत गृह (कोरबा पश्चिम) कोरबा में 210 मेगावाट की चार इकाइयों के साथ 80 के दशक में स्थापित हुआ जिसकी कुल स्थापित क्षमता 840 मेगावाट है। इन विद्युत गृहों को आपूर्ति 8 किमी. दूर स्थित कुदमुरा खदान से होती है तथा जल की आपूर्ति हसदो नदी पर स्थित बैराज (दरी के समीप) से होती

छत्तीसगढ़ में उद्योग (Industry in Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ में संसाधनों की प्रचुरता के कारण यहाँ औद्योगीकरण के विकास की अपार संभावनाएँ हैं। छत्तीसगढ़ खनिज संपदा की दृष्टि से समृद्ध राज्य कहा जा सकता है। वनोपज की दृष्टि से भी अंचल समृद्ध है, किंतु संसाधनों से परिपूर्ण विद्यमान है, जैसे-भिलाई इस्पात संयंत्र, सीमेंट उद्योग, खनन उद्योग, एन.टी.पी.सी., एल्युमिनियम संयंत्र आदि खनिज पर आधारित उद्योग हैं। वनोपज पर आधारित महत्त्वपूर्ण उद्योग भी हैं। बीड़ी उद्योग यहाँ जनजातियों के आर्थिक विकास एवं रोजगार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। चूँकि छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान राज्य है, इसलिये यहाँ पर कृषि आधारित उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग, शक्कर उद्योग, खाद्य तेल संयंत्र आदि उद्योगों की अच्छी संभावना है।

10.1 छत्तीसगढ़ में उद्योगों का विकास एवं संरचना (Development and Structure of Industries in Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ में उद्योग के नियोजित विकास का प्रारंभ द्वितीय योजना से होता है। इससे पूर्व यहाँ बड़े उद्योगों के नाम पर राजनांदगाँव में सन् 1894 में स्थापित बंगाल नागपुर कॉटन मिल (बी.एन.सी. मिल) एवं रायगढ़ में सन् 1935 में स्थापित जूट मिल ही थे। 1894 में राजनांदगाँव में सीपी मिल्स के नाम से बंबई के जे.वी. मैकवेथ ब्रदर्स ने राज्य की पहली कॉटन (सूती) मिल की स्थापना की। 1897 में इन्होंने यह फैक्ट्री कोलकाता के शावलिस कंपनी को बेच दी। शावलिस कंपनी ने इसका नाम बदलकर बंगाल-नागपुर कॉटन मिल रखा।

भारत के अन्य राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में उद्योगों का विकास अत्यंत धीमा रहा है। ब्रिटिश काल में मध्य प्रांत में औद्योगिक विकास की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अंचल छोटी-छोटी रियासतों में विभक्त था, जो अधिक स्वावलंबी इकाई के रूप में ब्रिटिश अधीनता में कार्य करती थी। रियासतों का ध्यान प्रादेशिक आर्थिक विकास की ओर अधिक नहीं था। मध्य प्रांत के अंतर्गत अंचल के संसाधनों का उपयोग अत्यंत सीमित था। विशेषकर वन संपदा का ही दोहन किया जाता था. किंतु वनों पर आधारित अन्य उद्योगों का विकास नहीं हो सका था। खनिज संपदा के सर्वेक्षण एवं दोहन हेतु कोई प्रयास ब्रिटिश काल में अंचल में नहीं किये गए। अतः इस पर आधारित उद्योग भी स्थापित नहीं हुए। अंचल के प्राकृतिक संसाधन शताब्दी के मध्य तक संचित भंडार के रूप में पड़े रहे। 1956 में पुनर्गठित मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया, जिसमें बरार को पृथक् कर छत्तीसगढ़ की 14 रियासतों को सम्मिलित कर लिया गया तथा उस क्षेत्र को मध्य प्रदेश का पूर्वाचल कहा गया. जो वनों से आच्छादित आदिवासी बहुल विकास से दूर एक पिछड़ा क्षेत्र था। इस नए प्रदेश का जन्म द्वितीय योजना काल के आरंभ में हुआ था। अतः इस योजनाकाल में ही अंचल के नैसर्गिक संसाधनों के विदोहन एवं यहाँ औद्योगिक विकास की पृष्ठभूमि तैयार हुई। दुर्ग जिले के लौह भंडार एवं कोरबा के कोयला भंडारों पर आधारित अत्यंत महत्त्वपूर्ण केंद्रीय उपक्रम सोवियत रूस की सहायता से द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान 1956 में भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना हुई, जो आज देश का अग्रणी इस्पात संयंत्र है। इस प्रकार द्वितीय योजनाकल से ही यहाँ संसाधनों का मूल्यांकन एवं उपयोग प्रारंभ हुआ। यद्यपि ब्रिटिश काल में स्थापित बी.एन.सी. मिल राजनांदगाँव, 1894 एवं रायगढ़ की मोहन जूट मिल, 1935 उल्लेखनीय हैं. किंतु ये यहाँ के संसाधनों पर आधारित नहीं थे, बल्कि कच्चा माल कपास विदर्भ से एवं जूट-पूर्वी बिहार, ओडिशा एवं बंगाल से प्राप्त किया जाता था।

प्रदेश के उत्तरी हिस्से में कोयले के क्षेत्रों की एक बड़ी पेटी है. जो सरगुजा, रायगढ़ कोरबा एवं बिलासपुर तक विस्तृत है। लोहे के प्रमुख क्षेत्र दुर्ग एवं बस्तर में है। बॉक्साइट के भंडार बिलासपुर तथा सरगुजा जिलों में है. जिससे बाल्को का केंद्रीय उपक्रम स्थापित हो सका है। लौह तथा सीमेंट उद्योग में महत्त्वपूर्ण चुने के पत्थर के भंडार दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर जिलों में अवस्थित है। विद्युत् संसाधन की दृष्टि में तो प्रदेश संपूर्ण देश में अग्रणी है।

 

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