छत्तीसगढ़ी काव्य धारा: माटी की महक और जीवन के रंग
यह संग्रह छत्तीसगढ़ की आत्मा को दर्शाने वाली कविताओं का एक गुलदस्ता है। इसमें खेती-किसानी की मेहनत से लेकर तीज-त्योहारों की उमंग, प्रेम की मीठी चुभन से लेकर जीवन के गहरे दर्शन तक, हर रंग समाहित है।
भाग 1: कृषि और प्रकृति का सौंदर्य
1. हरियर डोली
(यह कविता छत्तीसगढ़ के किसानों के जीवन, उनकी मेहनत और फसल आने की खुशी का सजीव चित्रण करती है।)
हरियर-हरियर डोली म, मेहनत के फर लहराथे।
भाग जगा के खेती म, खेतहारिन ददरिया गावथे।।
मेड़ पार म परसा फुल, पुरवाही म लहरावथे,
चारो मुड़ा सतरंगी बादर, सरर सरर गुनगुनावथे।
माथ नवाये धन्हा डोली म, नंगरिहा ओनहारी जमावथे।।
लिप पोत के चतवारे बियारा, धन्हा डोली लुवावथे,
उल्हा-उल्हा दिखे ओन्हारी, खवइया मन लुभावथे।
मिंजा कुटा के कोठी म, अब लछमी दाई समावथे।।
दाई बर लुगरा ददा ह धोती, मोरो बर कुरता बिसावथे,
तिहार बार म ठेठरी खुरमी, अउ मेला मड़ई घुमावथे।
नवा धान के चाउर म, चिला दुदफरा खवावथे।।
2. नंगरिहा
(असाढ़ के आगमन पर किसान को खेती की तैयारी के लिए जगाने का यह एक सुंदर आह्वान गीत है।)
जाग नंगरिहा भाग जगा ले, तोर दिन बादर आगे।
बदरी छागे रे… बरखा आगे रे… असाढ़ तोर दुवार आगे।।
बड़े बिहनीया ले खेत-खार जाबे, काटा खुटी बिन चतवार आबे,
कादी कचरा दुबी बन खेत ले मेड़ पार आगे।
लाली धौरा बइला ल चारा चराडर, करीया भुरवा पड़वा ल मोटवा डर,
नांगर फंदाही तोर संग नंगरिहा के बत्तर आगे।
घुरवा के खातु कचरा पाल दे, गाड़ी रावन के बिला भरका पाट दे,
बिजहा जमोडर अब बांवत तोर अधवार आगे।
सरी मंझनीया अरा ररा अरई गड़े, खेतहारिन घाम ले रुखवा के छांव ठाड़े,
होगे बियारी के बेरा बासी वाली तोर लगवार आगे।
3. जड़काला
(सर्दियों की चुभन और उस दौरान गाँव के जीवन का मनमोहक वर्णन।)
हाय कइसन जड़काला तन मन ल जड़ा डारे,
कमरा हर छुटे ता गोरसी ल पोटारे।
अरे रतिहा ल का कहिबे दिन हा कपा डारे,
सुरुज तिर ठाड़े घाम ल जोहारे।।
ठुनठुनहा लागिस पोहाती वोदिन,
कुनकुनहा आगिस घाम थोकिन।
बुड़े नइहव तरिया म एकोदिन,
अंगोझ डरेव तात पानी म थोकिन।
हाय कइसन जड़काला पानी ल कठवा कर डारे।।
बरी सुक्सी अउ खुला अब चुरय नही,
अंगाकर संग बंगाला पुरय नही।
साग भाजी ले बारी पलपलाही,
तुरते ताजा अब भारी सुहाही।
हाय कइसन जड़काला पोचवा ल फुलही कर डारे।।
कुड़कुड़ाती धुका म भुररी बारे,
माइ पिला सबो आंच सेंक डारे।
चुलहा म लुकी थोरको नइ ठाहरे,
रही रहीके बदरा म लुकी डारे।
हाय कइसन जड़काला पछीना ल नोहर कर डारे।।
भाग 2: उत्सव, मेले और त्यौहार
1. मेला-मड़ई
(कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाले मेले की रौनक और उसमें शामिल होने की इच्छा का सुंदर वर्णन।)
जोही बइला गाड़ी संभराना, हमु मेला-मड़ई किंजर आतेन।
बड़ पावन हे कातिक पुन्नी, हमु महानदी मे नंहा आतेन।।
भीड़ भड़का म धीरे हांकव गाड़ी, दुरिहा रद्दा सुरता लेवा थोरी।
आनी बानी खजानी के होट होही, मया के जिनीस बिसा के जोड़ी।
हमु मेला के मजा उड़ा आतेन।।
जोही…
संगी सहेली संग रईचुली चघे हे, गजब डेलवा झुले के साध लगे हे।
टिकली फुंदरी ले मन बरे हे, मया के माहूर ले पांव रचे हे।
हमु ढेलवा म झुल आतेन।।
जोही…
बिन चिनहा के हथेरी सुन्ना लागथे, गोदना वाली के आरो मिलथे।
हाथ म हिरौंदी हीरा नाव लिखाथे, माहर-माहर येकर इत्तर मिलथे।
हमु मया के चिन्हा गोदा आतेन।।
जोही…
2. दिन देवारी हे
(दिवाली के त्यौहार का उल्लास, सुआ नृत्य, गौरा-गौरी पूजा और राउत नाच का मनमोहक चित्रण।)
लिप पोते सुघ्घर भुवना, चउक पुरावत अंगना।
दिन देवारी हे कातिक महिना आरो देवथे सुवना।।
अलिन गलिन ले सखिया बटोरत, तरिहर नाना तिरिया गावय।
घानी मुंदी झुमर पड़की नाचत, अंजरी भर अन्न असिद पावय।
कुंभरा गड़े पड़की कड़रा डारे राखी गोड़िन बोहे मुड़ म सखीया बारे दियना।।
दिन देवारी हे…
गौरा चौरा म मोहरी बाजे। चुंदी छरीयाए बइगीन झुपे,
सोटा मारत बइगा नाचे। गउरा दुल्हा बउ गउरी दुल्हिन,
सरी जग देखय मंगल लगना।।
दिन देवारी हे…
गरवा बगराए खैरखा म गहीरा पारय दोहा।
लउठी चलत अखड़ा डाढ़ म सहाय करे साहड़ा देवहा।
राउत नाचे अहिर रउतइन लिपे ओरी सोहई बांधे गर म गउ के होवे पुजन।।
दिन देवारी हे…
3. राउत दोहा
(मातर त्यौहार के अवसर पर राउत (यादव) समुदाय द्वारा गाए जाने वाले पारंपरिक दोहे, जिसमें शौर्य, भक्ति और परंपरा का संगम है।)
बन म गरजे बलखर बघवा, कोठा म गरजे गोररईया।
खैरखा म गरजे राउत गहिरा, कारी कुकरी देवे धुरपईया।।
दिन देवारी हे मोर लछमी मईया, मैं खैरखा म लउठी भांजवं।
लान तेंदु साहर के लउड़ी भईया, मैं पुरखा के मातर जागवं।।
चार महिना के चरवाही म, दुध दही के चंडी जाथे।
दुहना छुटे दसराहा देवारी म, घर घर माखन मिसरी खाथे।।
दिन देवारी हे मोर गउरा गउरी, मैं कुलदाई के चरन पखारवं।
लान कुरुद हाट के कमरा खुमरी, मैं पुरखा के मांतर जागवं।।
गाय गछिया ले कोठार भरय, कोठी छलकय अंनधन ले।
किसन कन्हइया किरपा करय, फलय फुलय अंगना असिद ले।।
दिन देवारी हे मोर दाउ सउंधीयागा, मैं यदुवंसी के कुल दिया हरवं।
लान पाटन बजार के कोस्टउहा पागा, मैं पुरखा के मांतर जागवं।।
4. फागुन
(होली के त्यौहार का मस्ती भरा और रंगीन वर्णन।)
रहस डंडा नांचथे सियाम राधा के रसिक।
सवांग धरे सखा गोपी गवाला के सरिक।।
गांव-गांव गोकुल बन बने हे बिरज।
रंग धरे आ फागुन तोला हे अरज।।
होरी लकड़ी बर खेत खार छान मारय, बारी बखरी के घला उदियान करय।
अतलंहा खुटा खभर फइका डारय, मस्तीयावत मन म अब नइहे धिरज।।
रंग धरे आ फागुन तोला हे अरज।।
सराररा गावथे लइका सियान, सुनिहव फाग कबिरा देके धियान।
झांझ मंजीरा संग म गुंजथे तान, घिड़कत टासा म नंगारा के हे तरज।।
रंग धरे आ फागुन तोला हे अरज।।
गुलाल उड़ाये थरी भर-भर, रंग बरसाये पिचकारी धर-धर।
सतरंगी होगे अब करिया बादर, सबला रंगव चिनहे के नइहे गरज।।
रंग धरे आ फागुन तोला हे अरज।।
भाग 3: प्रेम, विरह और मानवीय भावनाएं
1. कवांरा के गोठ (एक कुंवारे की बात)
(प्रेम की विरोधाभासी भावनाओं का अत्यंत सुंदर और मार्मिक चित्रण।)
तोला देख-देख जिये के मन करथे जवांरा,
फेर काबर जब-जब तोला देखथवं मर जथवं कवांरा।
हिरदे म तही मोर सांस बनके धड़कथस,
फेर काबर जब-जब मै सांस लेथवं थम जथे ये जिवरा।
तोर आय ले संझा अउ जाय ले बिहनीया जानेवं,
फेर काबर जब-जब तै आथस ठाहरे नही ये बेरा।
सुते म तै जागे म तै समाये हस आखी भितरी,
फेर काबर जब-जब तोला देखथव लजाथे नयन बिचारा।
2. बिरहा के आगी
(विरह की अग्नि में जलते हुए मन की व्यथा का सजीव वर्णन।)
बिरहा के आगी मोर जीया जरोवथे।
रही-रही के सुरता तोर करेजा करोवथे।।
आसा के तरिया म मया डोंगा तउरथे,
बुड़ोबे के उबारबे मन ड़ोंगहार पुछंथे।
रही-रही के लाहरा मोर धीरज धरोवथे…
बिते बिसरे तोर संग के बेरा नइ भुलावथे,
सुरता के पेड़वा हर सांस डोरी झुलावथे।
रही-रही के पावन मोर जिवरा डरोवथे…
नयन के लिगरी म, दुनो नयन लड़थे,
सोन पुतरी परी अब, आसु बन के ढरथे।
रही-रही के आखी मोर, नरवा ढरोवथे…
भाग 4: जीवन दर्शन और सामाजिक चिंतन
1. जिनगी के भेद
(एक पक्षी जोड़े के घोंसले के माध्यम से कवि ने नर-नारी के रिश्ते और माता-पिता के प्रेम के गहरे रहस्य को उजागर किया है।)
जागेवं बिहनीया लाली सूरुज के चड़ती,
अंगना म उड़ आइस दु चिरइया उड़ती।
पिरीत के चोच लड़ई ले चिनहेव नर नारी,
कभु डारा म उड़ बईठे कभु उड़य छानी।
बिलमगेवं बुता म मैं देख के अनदेख।
बेरा बुड़ती लहूटेव अपन बसुंदरा,
नजर म झुलगे काड़ी खुटी के खोंधरा।
काड़ी-काड़ी जोर के सिरजाये हेबे पैरा,
चहक-चहक के काहय सुघर हे डेरा।
जान डरेव ये पंछी बनाहे अपन बसेरा,
हरहिंछा होगवं मैं दिन अउ रतिहा अब।
दूसरइया बिहनीया फेर देखेवं वहू देखय,
नर उठे त नारी, नारी उठे त नर राखय।
मन मन म गुनेव का ओढ़र ये खोंधरा ल,
सुन्ना काबर नई छोड़ये मन नइ मानिस।
मैं झांक डरेवं, दाई ददा के पिरा ल मैं भांप डरेवं देख।
2. करम
(भाग्य, धर्म, समाज और जीवन की विडंबनाओं पर एक गहरा दार्शनिक चिंतन।)
का करम लिखा के आए हव माथा म,
रेती कस झरत हे मोर मुठा ले।
काहि नइ सिजाएव अपन हाथ म,
तिही बनाए हस तिही मेटा ले।
ये जिनगी तो मेकरा के जाल होगे,
मिही बुनेव मोर बर काल होगे।।
धरम के तराजु म रुपिया चड़े,
देवता दरस म फिस मांगे पुजेरी।
मंदिर के आगु म मंदहा खड़े,
मोह माया धरे कइसे होववं बइरागी।
मोर सरधा के फुल नपाक होगे,
तन के ठुड़गा गुंगवा के राख होगे।।
तन के परदा ले झांके परोसी,
दुख दरिदरी म हांसे परोसी।
बइमान होके इमान सिखोवे परोसी,
मितवा बन के अनित करे परोसी।
रुंधे बर घरैदा बड़ देरी होगे,
खोंधरा उजारे पवन बइरी होगे।।
3. करम के दोना
(एक गरीब की ईश्वर से मार्मिक पुकार, जो समाज में व्याप्त गरीबी और असमानता पर सवाल उठाती है।)
किंजर के गली-गली म, मंय करम के दोना तुनथवं।
जिनगी बगरगे कोन गरेरा म, सुख के डारा पाना बिनथवं।।
नइ चाही धन दउलत, नइ मांगत हवं कपड़ा लत्ता।
भुख बाड़गे लइका के नंगत, पसिया पेज देवादे दाता।
कइसे गढ़हे हस भग ल, मंय अभागा के ताना सुनथवं।।
काबर आखी मुंदे बइठे हस, ये पथरा के भगवान।
मोला हे रोटी के आस, तोला भोग लगे खिर पकवान।
हाथ पसारे ठाड़हे, मंय परसाद म घला हिनावथं।।
कोन जनम के पाप रिहीस, काकर करजा छुटथवं।
कतका भुगतना लिखेहस, यम ल आज पुछ्थवं।
दया करव दयालू, मंय आठो पाहर तोर नाम गुनथवं।।
भाग 5: आशा और राष्ट्रप्रेम
1. आवथे नवा बेरा
(नए साल के आगमन पर नई उम्मीदों, संकल्पों और भाईचारे का संदेश देती एक प्रेरणादायक कविता।)
जय जोहार लेलो भइया, आवथे नवा बेरा के,
बच्छर पाछु भइगे, आगू बच्छर लेवथे फेरा।
मजा लेहन मजा लेबो नवा साल के,
आगे दू हजार आठ बारा बजती के बेरा।।
नसा पानी छोड़े के दिन हे, झगरा लड़ई टोरे के दिन हे।
सुनता के संकलप धरे हे, सबो संगी मन परन करे हे।
अबतो इही ओड़र म खुसी ल अगोरा।।
देवारी कस फटाका फुटे, होरी कस रंग गुलाल उड़े।
ईद सहिक सेवइया चुरे, बड़े दिन कस केक बटे।
अबतो इहां बधइया देबो अउ लेबो रात पुरा।।
पिरीत के फुल धरे बगीया तरी, अमरइया म किंजरे जोगनी परी।
गर मिलके भुलाव रिस बइरी, गदर मताए के आगे हे पारी।
अबो गुंजय गोहार मन भितरी ले मया पारा।।
2. तिरंगा
(राष्ट्र ध्वज तिरंगे को समर्पित, देश की एकता, अखंडता और अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश देती एक देशभक्ति कविता।)
तिरंगा ओड़े रेगय धरती, अहिंसा के पैडगरी म।
उच निच अउ जाति धरम, बोह के एके गघरी म।।
जननी ले बड़े मोर जग महतारी,
जान लड़ाके जेकर करवं रखवारी,
जब विपदा आवे ठाड़े राहवं दुवारी,
जोइधा खोजत रेंगय धरती, अहिंसा के पैडगरी म।
भाई ह भाइ ल झन जाहर पियाव,
नता रिस्ता के अपन करव हियाव,
पिरीत बन म बैर के बिरवा झन गड़ियाव,
मया बाटत रेंगय धरती, अहिंसा के पैडगरी म।
हाथ जोरे हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई,
संघरे सकलागे सुराजी बर दाई,
अइसन जाइधा ल कइसे भुलाई,
गौरव गावत रेंगय धरती, अहिंसा के पैडगरी म।