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छत्मांतीसगढ़ी नृत्य और अन्य

मांदरी नृत्य
जनजाति – मुड़िया / मुरिया
स्थान – सामान्यतः घोटुल के चारो और घूम घूम कर
विशेष – इस नृत्य में नर्तक गायन नहीं करते, केवल नृत्य करते हैं
वाद्ययंत्र – चिट्कुल एवं बिरझिया ढोल

घोटुल एक बड़े ‘कुटीर’ को कहते हैं जिसमें पूरे गाँव के बच्चे या किशोर सामूहिक रूप से रहते हैं। यह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश के पड़ोसी क्षेत्रों के गोंड के माड़िया उपजाति के ग्रामों में विशेष रूप से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में, घोटुल जनजातीय गाँवों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र होता है।

अलग-अलग क्षेत्रों में घोटुल सम्बन्धी परम्पराओं में अन्तर होता है। कुछ में जवान लड़के-लड़कियां घोटुल में ही सोते हैं तो कुछ में वे दिन भर वहां रहकर रात को अपने-अपने घरों में सोने जाते हैं। कुछ में नौजवान लड़के-लड़कियां आपस में मिलकर जीवन-साथी चुनते हैं। हालांकि यह परम्परा अब धीरे-धीरे कम हो रही है। घोटुल में उस जाति से सम्बन्धित आस्थाएं, नाच-संगीत, कला और कहानियां भी बताई जाती हैं।

घोटुल, गांव के किनारे बांस या मिट्टी की बनी झोंपड़ी होती है। घोटुल को सुन्दर बनाने के लिए उसकी दीवारों में रंगरोगन करके उस पर चित्रकारी भी की जाती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मंडप होता है।

यह परम्परा इस जनजाति के किशोरों को शिक्षा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया अनूठा अभियान है। इसमें दिन में बच्चे शिक्षा से लेकर घर–गृहस्थी तक के पाठ पढ़ते हैं तो शाम के समय मनोरंजन और रात के समय आनन्द लिया जाता है। मुरिया बच्‍चे जैसे ही 10 साल के होते है घोटुल के सदस्‍य बन जाते हैं। घोटुल में शामिल लड़कियों को ‘मोटीयारी’ और लड़कों को ‘चेलिक’ कहते हैं। लड़कियों के प्रमुख को ‘बेलोसा’ और लड़कों के प्रमुख को ‘सिलेदार’ कहते हैं। घोटुल में व्यस्कों की भूमिका केवल सलाहकार की होती है, जो बच्‍चों को सफाई, अनुशासन व सामुदायिक सेवा के महत्व से परिचित करवाते हैं। घोटुल में किशोर-किशोरियां के अलावा केवल उनके शिक्षक ही प्रवेश कर सकते हैं।

हर शाम बजने वाला नगाड़ा इस बात का संकेत होता है कि मोतियारियों और चेलिकों के घोटुल में जाकर मनोरंजन करने का समय हो गया है। वहां देर रात तक नाचने-गाने, मिलने-जुलने, छेड़छाड़-चुहल, अंत्याक्षरी और दूसरे तरह के खेल चलते रहते हैं। तम्‍बाकू और ताड़ी सबके के लिए उपलब्‍ध होता है। मनोरंजन और कामकाज की शिक्षा के अलावा घोटुल का उद्देश्य नौजवानों को व्‍यापक गोंड समुदाय का हिस्‍सा बनाना भी होता है, जिससे उन्हें अपनी परंपराओं और जिम्‍मेदारियों का समय रहते अहसास हो सके। अंतिम संस्कार समेत आदिवासी समाज के सभी संस्कारों में घोटुल के सदस्य जरूर शामिल होते हैं।

घोटुल समुदाय के लोग मुगल और ब्रिटिश काल के मध्य 1750 ई में बस्तर छोड़कर भाग कर नालन्दा बस गए। आज कल इन्हें सायद ‘घमाइला’ उपजाति के नाम से जाना जाता है लेकिन ये पूरी तरह प्रमाणित नहीं है। इन्होंने पानीपत के युद्ध मे मराठों का साथ भी दिया। ये एक अच्छे योद्धा हुआ करते थे।

लिंगो देव

यह प्रथा लिंगो पेन अर्थात् लिंगो देव ने शुरू की थी। लिंगो देव को गोंड जनजाति का देवता माना जाता है। समस्त गोंड समुदाय को पहांदी कुपार लिंगो ने कोया पुनेम के मध्यम से एक सूत्र में बंधने का काम किया।

सदियों पहले जब लिंगो देव ने देखा कि गोंड जाति में किसी भी तरह की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है तो उन्होंने एक अनोखी प्रथा शुरू की। उन्होंने बस्ती के बाहर बांस की कुछ झोंपडि़यां बनवाई और बच्चों को वहां पढ़ाना शुरू कर दिया। यही झोंपडियां बाद में ‘घोंटुल’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। इनमें बच्चों को जीवन से जुड़ी हर शिक्षा दी जाती थी।

जीवनसाथी का चुनाव

जैसे ही कोई लड़का घोंटुल में आता है और उसे लगता है कि वह शारीरिक रूप से परिपक्व हो गया है, उसे बांस की एक कंघी बनानी होती है। यह कंघी बनाने में वह अपनी पूरी शक्ति और कला झोंक देता है, क्योंकि यही कंघी तय करती है कि वह किस लड़की को पसंद आएगा। घोंटुल में आई लड़की को जब कोई लड़का पसंद आता है तो वह उसकी कंघी चुरा लेती है। यह संकेत होता है कि वह उस लड़के को चाहती है। जैसे ही वह लड़की यह कंघी अपने बालों में लगाकर निकलती है, सबको पता चल जाता है कि वह किसी को चाहने लगी है। लड़के–लड़की की जोड़ी बन जाती है तो वे दोनों मिलकर अपने घोटुल को सजाते–संवारते हैं और दोनों एक ही झोंपड़ी में रहने लगते हैं। इस दौरान वे वैवाहिक जीवन से जुड़ी विभिन्न शिक्षाएँ स्वयं प्राप्त करते हैं। इसमें एक-दूसरे की भावनाओं को समझने से लेकर शारीरिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करना तक शामिल होता है। यहां विशेष बात यह है कि केवल वही लड़के–लड़कियां एक साथ एक घोटुल में जा सकते हैं, जो सार्वजनिक हो चुके हों कि वे एक–दूसरे से प्रेम करते हैं।

 

ककसार नृत्य
जनजाति – मुड़िया / मुरिया
आरम्भ – घोटुल युवा गृह के देवता लिंगोपेंन की आराधना हेतु ।
विशेष – काकसार नृत्य के दौरान घोटुल परिसर में मुड़िया जनजाति में जीवनसाथी का चुनाव किया जाता है।
वाद्ययंत्र – तुरही या अकूम

ककसाड़ नृत्य या ककसार नृत्य छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले की मुड़िया और अबुझमाड़िया जनजाति के युवक-युवतियों द्वारा किया जाने वाला एक लोकनृत्य है। यह नृत्य, फसल और वर्षा के देवता ‘ककसाड़’ की पूजा के उपरान्त किया जाता है। इस नृत्य के साथ संगीत और घुँघरुओं की मधुर ध्वनि से एक रोमांचक वातावरण उत्पन्न होता है। इस नृत्य के माध्यम से युवक और युवतियों को अपना जीवनसाथी ढूँढने का अवसर प्राप्त होता है। यह एक मूलतः जात्रा नृत्य है इस लिए इसे जात्रा नृत्य भी कहते हैं। गांव के धार्मिक स्थल पर मुरियाया जनजाति के लोग वर्ष में एक बार ककसाड़ यात्रा पर पूजा का आयोजन करते हैं। लिंगोपेन उनके प्रमुख देवता हैं जिनको प्रसन्न करने के लिए युवक और युवतियों अपनी साज-सज्जा करके सम्पूर्ण रात नृत्य-गायन करते हैं। पुरुष कमर में घंटी बाँधते हैं जबकि स्त्रियां सिर पर विभिन्न फूलों और मोतियों की मालाएं पहनती है।

ककसाड़ नृत्य एक धार्मिक नृत्य है जिसे करते समय नर्तक युवा अपने कमर में पीतल अथवा लोहे की घंटियां से बना कमरबंध, हिरनांग बांधे रहते हैं। इसके अलाव युवा अपने सिर पर पगड़ी, कलगी और कौड़ियों से श्रृंगार कर आकर्षक वेशभूषा में रहते हैं। मांदरी की ताल नृत्य को गति प्रदान करती है। युवतियाँ छोटे आकार के मजीरे (चिटकुल) बजाते हुए मांदरी की थाप के साथ संगत करते हुए नृत्य करतीं हैं।

मुरिया जनजाति के ककसाड़, मांदरी और गेंडी नृत्य अपनी गीतत्मक और सुन्दर विन्यास के लिये अत्यन्त लोकप्रिय हैं।

सरहुल नृत्य
जनजाति – उराँव जनजाति का अनुष्ठानिक नृत्य
अवसर- यह त्यौहार नए साल के शुरुवात का प्रतिक है चैत्र पूर्णिमा के दिन यह नृत्य किया जाता है
क्षेत्र – सरगुजा अंचल में
विशेष – इस नृत्य में साल वृक्ष की पूजा की जाती है, बसंत या फागुन के आने की ख़ुशी में किया जाता है

 

सरहुल नृत्य: छत्तीसगढ़ की आत्मा

परिचय:

सरहुल नृत्य, छत्तीसगढ़ राज्य में सरगुजा, जशपुर और धरमजयगढ़ तहसील में बसने वाली उरांव जाति का जातीय नृत्य है। यह नृत्य चैत्र मास की पूर्णिमा को रात के समय किया जाता है।

महत्व:

  • यह नृत्य एक प्रकार से प्रकृति की पूजा का आदिम स्वरूप है।
  • यह नृत्य वर्षा ऋतु के आगमन और नव वर्ष का प्रतीक है।
  • यह नृत्य समुदाय के लोगों को एकजुट करता है और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है।

विशेषताएं:

  • सरहुल नृत्य में पुरुष और महिलाएं दोनों भाग लेते हैं।
  • पुरुष लुंगी और गंजी पहनते हैं और महिलाएं लहंगा और चोली पहनती हैं।
  • नृत्य के दौरान ढोल, नगाड़ा, मंजीरा और बांसुरी जैसे वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं।
  • नृत्य बहुत ही सरल और सुंदर होता है और इसमें विभिन्न प्रकार के मुद्राओं का प्रयोग होता है।

उत्सव:

  • सरहुल नृत्य का आयोजन एक बड़े मैदान में किया जाता है।
  • नृत्य शुरू होने से पहले, गांव के पुजारी (लाया या पाहान) देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
  • पूजा के बाद, नृत्य शुरू होता है और रात भर चलता रहता है।
  • नृत्य के दौरान, लोग गाते हैं, नाचते हैं और एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं।

निष्कर्ष:

सरहुल नृत्य छत्तीसगढ़ की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य लोगों को प्रकृति से जोड़ता है और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है।

छत्तीसगढ़ के नृत्य: रंगों और उत्साह का संगम

छत्तीसगढ़, भारत के मध्य में स्थित एक राज्य, अपनी समृद्ध संस्कृति और विविधतापूर्ण लोक नृत्य के लिए जाना जाता है। यहाँ के नृत्य, आदिवासी समुदायों और विभिन्न क्षेत्रों की जीवनशैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कुछ प्रमुख लोक नृत्य:

  • पंथी नृत्य: यह नृत्य गुरु घासीदास के जीवन और शिक्षाओं पर आधारित है।
  • राउत नाचा: यह नृत्य शक्ति और साहस का प्रतीक है।
  • कर्मा नृत्य: यह नृत्य प्रकृति और कृषि से जुड़ा हुआ है।
  • सुआ नृत्य: यह नृत्य मोर के पंखों की तरह होता है।
  • सैला नृत्य: यह नृत्य देवी-देवताओं की पूजा के लिए किया जाता है।
  • गेंडी नृत्य: यह नृत्य गाय के बछड़े के खेलने का प्रतीक है।
  • ककसार नृत्य: यह नृत्य स्त्री-पुरुषों के बीच प्रेम का प्रतीक है।
  • छेरछेरा नृत्य: यह नृत्य शिकार का प्रतीक है।
  • खड़ा नाचा: यह नृत्य ढोल-मंजीरा की ताल पर किया जाता है।

इन नृत्यों की विशेषताएं:

  • इन नृत्यों में रंग-बिरंगे परिधानों का प्रयोग होता है।
  • ढोल, नगाड़ा, मंजीरा, बांसुरी, और डफली जैसे वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं।
  • नृत्य में विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता है।
  • नृत्य सामाजिक समरसता और भाईचारे का प्रतीक हैं।

नृत्य के अवसर:

  • त्योहारों और उत्सवों पर
  • धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान
  • सामाजिक समारोहों में

निष्कर्ष:

छत्तीसगढ़ के नृत्य, राज्य की समृद्ध संस्कृति और विरासत का प्रतीक हैं। ये नृत्य लोगों को प्रकृति से जोड़ते हैं और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देते हैं।

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