( इस भाग में में कुल 04 मुद्दे हैं , जिनमे से अभ्यर्थी को किन्ही 02 मुद्दों पर अधिकतम 750 – 750 शब्दों में निबंध लिखना होगा l )
( There are a total of 04 issues in this part, out of which, the candidate has to write Essay on a maximum of 750 – 750 words on any 02 issues. )
- भारत में एक व्यापक एवं एकीकृत शहरी नियोजन : आवश्यकता एवं चुनौतियाँ
हाल ही में केरल में आई विनाशकारी बाढ़ और कुछ समय पहले दक्षिणी मुंबई के सिंधिया हाउस में लगी भीषण आग ने नीति निर्माताओं को एक समन्वित शहरी नियोजन की आवश्यकता पर फिर से सोचने के लिये मजबूर किया है। बात चाहे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा 14 शहरों के प्रदूषण संबंधित किये गए सर्वेक्षण की हो या फिर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण शहरों के बुरे तरीके से प्रभावित होने की, इनके ठोस समाधान के लिये एक शहरी नियोजन की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इसी को देखते हुए हम लेख में शहरी नियोजन के कमजोर पक्षों पर प्रकाश डालने के साथ-साथ उसके बेहतर प्रबंधन से संबंधित तथ्यों पर भी नजर डालेंगे।
शहरी नियोजन क्या है और भारत को एक व्यापक एवं एकीकृत शहरी नियोजन की आवश्यकता क्यों है?
- शहरी नियोजन एक प्रक्रिया है जिसके तहत स्थानीय स्तर पर नियोजन सीधे हस्तक्षेप द्वारा शहर के विकास से संबंधित विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित किया जाता है। इसकी सहायता से निवासियों की मोबिलिटी, गुणवत्तापूर्ण जीवन एवं धारणीयता जैसे उद्देश्यों को पूरा किया जाता है। शहरी नियोजन आज के इस बढ़ते शहरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू हो गया है।
- हम जानते हैं कि इस समय भारत भी तीव्र नगरीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है। यू.एन. अर्बनाइज़ेशन प्रोस्पेक्टस, 2018 रिपोर्ट के अनुसार भारत की जनसंख्या का करीब 34 फीसदी हिस्सा शहरी क्षेत्रों में निवास करता है। इसमें 2011 की जनगणना की तुलना में 3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है।
- मेगासाइज़ अर्बन क्लस्टर की संख्या कई वर्षों से स्थिर बनी हुई है जबकि स्मॉलर अर्बन क्लस्टर की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आपको बताते चलें कि मेगासाइज अर्बन क्लस्टर उन्हें कहा जाता है जिनकी जनसंख्या 50 लाख से ऊपर होती है। नगरीकरण में हो रही इस वृद्धि के कारण शहरों की मांग-आपूर्ति अंतर में भी बढ़ोतरी हो रही है। यह अंतर आवास के अलावा जल, स्वच्छता एवं सफाई, परिवहन और संचार सेवाओं में भी दिखायी देता है।
- गाँवों और शहरों के बीच सुविधाओं को लेकर जो अंतर देखने में आता है उसके कारण गाँवों से शहरों की ओर प्रवसन होता है। ऐसे में जहाँ एक तरफ सवाल है कि क्या ये शहरी क्षेत्र नए निवासियों को आत्मसात करने के लिये पूरी तरह से तैयार हैं? तो वहीं दूसरी तरफ हम यह भी देखते हैं कि भारत प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों वाला देश है।
- भारत के ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही इलाके इन आपदाओं के प्रति सुभेद्यता रखते हैं। लेकिन भारतीय शहर ज्यादा जनसंख्या घनत्व के कारण इन आपदाओं के प्रति अधिक सुभेद्यता रखते हैं। हर आपदा तेजी से हो रहे शहरीकरण की प्रक्रिया में हुई गलतियों को उजागर कर देती है। इन समस्याओं को देखते हुए देश के शहरों के लिये एक ठोस शहरी नियोजन की आवश्यकता है जिसमें वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण पर आधारित मास्टर प्लान की व्यवस्था की गयी हो।
खराब शहरी नियोजन किस प्रकार से शहर में आपदा एवं विभिन्न गंभीर परिस्थितियों को जन्म देता है?
- जनसंख्या का बढ़ता दबाव शहरों के विकासात्मक कार्यों पर भी दबाव डालता है। मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिये किए गए कार्य बुनियादी पारिस्थितिकीय तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं जिनकी क्षतिपूर्ति करना एक समय-सीमा के बाद संभव नहीं हो पाता है। साथ ही शहरी नियोजन में व्याप्त कमियाँ इन आपदाओं को और गंभीर बना देती हैं।
- शहरी नियोजन, मास्टर प्लान या डेवलपमेंट प्लान पर आधारित होते हैं। ये प्लान भूमि उपयोग पर भी आधारित होते हैं यानी विभिन्न मानवीय गतिविधियों के आधार पर भूमि को कई वर्गों मसलन रेसिडेंशियल, कमर्शियल, ट्रांसपोर्टेशन, पब्लिक और गवर्मेंट ऑफिस इत्यादि में बाँटा जाता है। इन योजनाओं को संबंधित राज्य विधायिका से मंजूरी प्राप्त होती है जिन्हें लगभग 20-25 वर्षों की अवधि में पूरा करना होता है; लेकिन ये मास्टर प्लान फंड की कमी के कारण ठीक ढंग से लागू नहीं हो पाते।
- देश की वर्तमान शहरी नियोजन व्यवस्था के साथ महत्त्वपूर्ण चिंता यह है कि यह भूमि उपयोग के पुराने तरीकों पर आधारित है। हमें इससे आगे बढ़ते हुए ऐसी योजना और प्रक्रिया अपनानी होगी जो लोगों की जरूरतों के मुताबिक हो।
- आपको बता दें कि शहरी नियोजन और स्थानीय शासन के बीच आपसी तालमेल का न होना भी हमारी नियोजन प्रक्रिया की एक बेसिक कमी है। हालाँकि 74वें संवैधानिक संशोधन में शहरी और स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने की बात कही गयी थी ताकि वे सेल्फ-गवर्मेंट संस्थान के रूप में कार्य कर सकें। लेकिन, शहरी नियोजन के संबंध में उनकी प्रभावशीलता अभी भी सीमित है। 1985 में केंद्र सरकार मॉडल क्षेत्रीय और शहर नियोजन एवं विकास कानून लेकर आई थी। पर, ज्यादातर राज्य अपने नियोजन कानूनों में इसके प्रावधानों को शामिल करने में नाकाम रहे हैं।
- दूसरी ओर, भारत में मोटराइजेशन यानी मोटर-वाहनों की संख्या अपनी विस्फोटक स्थिति में है। सड़क परिवहन ,ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी का बड़ा कारण बना है। दरअसल,शहरी आवागमन द्वारा पार्टिकुलेट मैटर और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे टॉक्सिक उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। ऐसे में शहरी नियोजन का कुप्रबंधन शहरी ताप द्वीप एवं प्रदूषण की मुख्य वजहों में से एक बनता जा रहा है।
- डब्लू.एच.ओ. और यूएन-हैबिटेट के एक अध्ययन से पता चला है कि शहरों की इमारतों और घरों के बल्बों, एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर और वाटर कूलर इत्यादि के इस्तेमाल से शहरी इलाकों के तापमान में 2-3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है। स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर गौर करें तो स्लम पुनर्वास प्राधिकरण द्वारा बनाई गई बसावटें और बहुत छोटे घर जहाँ दिन की रोशनी और हवा का संचार सुचारू रूप से नहीं होता, वहाँ टी.बी. जैसी बीमारियों का फैलाव देखने को मिलता है। यह तथ्य साबित करता है कि टी.बी. जैसी बीमारियों की वृद्धि एवं कमी में हाउसिंग की डिजाइनिंग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रदूषण के कारकों के अलावा भवनों में आग लगना एवं विभिन्न शहरी अवसंरचनाओं और बिल्डिंग्स का गिरना भी शहरी नियोजन के कुप्रबंधन को दर्शाता है। बढ़ती जनसंख्या की आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के क्रम में भवन निर्माण संबंधी विभिन्न मानकों और नीतियों का अनुपालन सही तरीके से नहीं हो रहा है। आमतौर पर भवनों के डिज़ाइन में अग्नि सुरक्षा संबंधी प्रावधान ही नदारद रहते हैं। फायर डिपार्टमेंट के पास भी आग के खतरों का आकलन करने के लिये तकनीकी ज्ञान का अभाव होता है। संबंधित विभाग शायद ही अग्निशमन अनुभव के आधार पर नो-ऑव्जेक्शन सर्टिफिकेट जारी करते हैं। - अब अगर हम आपदाओं पर नजर दौराएँ तो कैग ने 2005 की चेन्नई बाढ़ को मानव निर्मित आपदा घोषित किया था। कैग की रिपोर्ट के अनुसार, चेम्बरम्बकम झील से अंधाधुंध पानी छोड़े जाने के कारण अड्यार नदी पर जल का दबाव बढ़ा जिससे शहर एवं उपनगरों में बाढ़ आई। नदियों का तलछटीकरण नहीं होना भी इसकी प्रमुख वजहों में से एक था।
- इसी प्रकार, 2014 में जम्मू-कश्मीर में बाढ़ का कारण भी झेलम नदी के किनारे शहर का अनियोजित विकास था जिसने आपदा के स्तर में बढ़ोतरी ला दी थी। जम्मू-कश्मीर का आपदा प्रबंधन तंत्र भी अल्पविकसित अवस्था में है एवं इसके पास कोई बाढ़ पूर्वानुमान तंत्र भी नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार मुंबई शहर की मीठी नदी जो कचरे के कारण अवरुद्ध हो गयी है उसने शहर के विकास में अपने 60 प्रतिशत जलग्रहण क्षेत्र को खो दिया है। जबकि हम जानते हैं कि एक साफ और स्वच्छ नदी बाढ़ के पानी को तेजी से निकालने का कार्य करती है।
- केरल की बाढ़ की बात करें तो माधव गाडगिल कमिटी ने 2011 में पश्चिमी घाट की संवेदनशीलता पर एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें जैव-विविधता के संरक्षण के संबंध में बातें कही गयी थीं। इस क्षेत्र में कुछ नए औद्योगिक और खनन क्रियाओं पर रोक लगाते हुए कड़े विनियमन की बात कही गयी थी। इस रिपोर्ट को गंभीरता से नहीं लेने के कारण, विभिन्न मानव हस्तक्षेपों जैसे अनियंत्रित पत्थर खनन, निर्माण संबंधी गतिविधियों एवं दोषपूर्ण बाँध प्रबंधन केरल बाढ़ का कारण बने।
शहरी नियोजन के बेहतर प्रबंधन हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण सरकारी नीतियाँ और अंतर्राष्ट्रीय प्रयास
- भारत के पहले नेशनल कमीशन ऑन अर्बनाइजेशन ने 1988 में शहरी नीति पर रिपोर्ट सौंपी थी। उसके बाद 1992 में 73वाँ एवं 74वाँ संवैधानिक संशोधन लाया गया जिसे पंचायती राज एक्ट एवं नगरपालिका एक्ट के नाम से जाना जाता है। इसका उद्देश्य आर्थिक एवं स्थानीय नियोजन द्वारा गाँव एवं शहरों का विकास करना था। चूँकि भूमि राज्य का विषय है इसलिए सिर्फ कुछ राज्यों ने ही इसे अपनाया। इससे इसके क्रियान्वयन में धीमापन आ गया।
- इसके बाद भारत सरकार ने जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन, 2005 अपनाया जो अपनी तरह का पहला कदम था।
- 2015 में भारत सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया जिसका उद्देश्य 5 वर्षों के अंदर 100 शहरों की स्थिति में सुधार लाना था। 2015 में ही, आधुनिक सुविधाओं के साथ अधिक से अधिक शहरों के विकास के लिए AMRUT योजना यानी Atal Mission For Rejuvenation And Urban Transformation लायी गयी। इन सबके अलावा, हाल ही में केन्द्र सरकार पूरे देश के लिये एक राष्ट्रीय शहरी नीति लाना चाह रही है।
- चूँकि शहरी विकास राज्य का विषय है इसलिए अभी तक ऐसी कोई व्यापक राष्ट्रीय नीति नहीं बन पाई है जो शहरीकरण से संबंधित योजनाओं को बताए। बहरहाल, देश की यह प्रथम नेशनल अर्बन पॉलिसी 10 मुख्य क्षेत्रों पर केन्द्रित है, जिनमें से प्रमुख हैं – सहकारी संघवाद, समावेशी वृद्धि, धारणीयता, स्थानीय संस्थाओं का सशक्तिकरण, शहरी अवसंरचना वित्त प्रणाली, सशक्त शहरी सूचना प्रणाली आदि।
- यहीं पर आपको बता दें कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ‘यू.एन. हैबिटेट’ संयुक्त राष्ट्र का एक कार्यक्रम चल रहा है जो वैश्विक स्तर पर एक बेहतर शहरी भविष्य की दिशा में काम कर रहा है। इसका लक्ष्य सामाजिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ मानव बस्तियों का विकास और सभी के लिये समुचित आश्रय प्राप्त करवाना है।
- गौरतलब है कि 2016 में हैबिटेट 3 का आयोजन किया गया था, जो आवास और टिकाऊ शहरी विकास पर हरेक दो दशकों पर होने वाला संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन है। हैबिटेट 3 में जारी न्यू अर्बन एजेंडे में बताया गया है कि 2016 से 2030 के बीच धारणीय शहरी विकास को प्राप्त करने के लिये देशों को क्या किये जाने की आवश्यकता है। भारत भी इसी एजेंडे को आधार बना कर अपने शहरी नियोजन को आकार दे रहा है। वहीं हम पाते हैं कि यू.एन. के सतत् विकास लक्ष्य-11 के अनुसार,शहरों एवं मानव बसावटों को समावेशी, सुरक्षित, लोचपूर्ण एवं धारणीय भी होना चाहिये।
शहरी नियोजन के बेहतर प्रबंधन के लिये और क्या किये जाने की जरूरत है?
- शहरी नियोजन के बेहतर प्रबंधन के लिये सबसे पहले प्रभावी शहरी नियोजन में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है तभी विश्व स्तरीय शहरी भारत का निर्माण हो सकेगा। संविधान की 12वीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध कार्यों में शहरी नियोजन, भूमि उपयोग का विनियमन और आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिये योजना का निर्माण करना शामिल है। इसलिए राज्यों से उम्मीद की जाती है कि वे इन कार्यों को नगर-निगम को सौंप दें।
- 74वें संविधान संशोधन के अनुसार मेट्रोपोलिटन सिटी में मेट्रोपोलिटन प्लानिंग कमिटी के गठन की व्यवस्था की गयी है। जो स्थानीय निकायों द्वारा तैयार योजनाओं को मेट्रोपोलिटन क्षेत्र में एकीकृत करेंगे। आपको बता दें कि मेट्रोपोलिटन सिटी उन शहरों को कहा जाता है जिनकी जनसंख्या दस लाख से ऊपर होती है।
- 3 लाख से ऊपर वाले प्रत्येक शहर के लिये वार्ड कमिटी के गठन की बात भी की गयी है जो नगरपालिका संबंधी कार्यों को देखेगा। इन सभी संस्थानों को नियोजन प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग बनाना आवश्यक है। वहीं हम दूसरी तरफ देखते हैं कि शहरी स्थानीय निकायों के ऊपर विकेन्द्रीकरण के नाम पर बहुत अधिक जिम्मेदारियाँ सौंपी गयी हैं।
- स्थानीय निकायों के पास निरीक्षण कार्यों के लिये श्रम शक्ति की भी कमी रहती है। इसलिए पेपर वर्क में कमी लाते हुए सिस्टम को ऑनलाइन बनाने पर ध्यान देने की जरूरत है। वर्तमान की अप्रूवल संबंधी प्रक्रियाओं का आधुनिकीकरण भी जरूरी है।
- शहरीकरण को देश के आर्थिक विकास का अभिन्न अंग मानते हुए भारत सरकार के थिंक टैंक ‘नीति आयोग’ ने कुशल एवं टिकाऊ सार्वजनिक परिवहन को नीति में शामिल करने की बात कही है। नीति आयोग ने 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों के लिये एक एकीकृत महानगर परिवहन प्राधिकरण के गठन का सुझाव भी दिया है। ये समन्वित सार्वजनिक परिवहन योजना को तैयार करेंगे।
- हाल की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन एवं ऊर्जा उपभोग के मामले में मेट्रोपोलिटन सिटीज ने मेगासिटीज के बनिस्पत बेहतर प्रदर्शन किये हैं। इसका कारण यहाँ जनसंख्या, यात्रा अनुपात एवं वाहनों की संख्या का निम्न होना बताया गया है। कोलकाता एवं मुंबई दोनों ने भूमि उपयोग के साथ सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को अच्छे तरीके से एकीकृत किया है। 2004 में नॉन-मोटराइज्ड ट्रांसपोर्ट अपनाने वाला मुंबई पहला शहर बन चुका है। इसका उद्देश्य साइकिल ट्रैक और ग्रीन-वे का नेटवर्क तैयार कर वॉकिंग एवं साइक्लिंग करने वालों की संख्या में वृद्धि करना था।
- शहरी ताप द्वीप संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिये दक्षिणी भारत में सड़कों को उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाने पर जोर दिया जा रहा है ताकि सीधी पड़ने वाली सूर्य की रोशनी को टाला जा सके। शहरी नियोजन में सड़कों के विभिन्न हिस्सों, छतों के ऊपरी हिस्से को सफेद पेंट करने जैसे कार्यों को शामिल किया गया है जिससे सूर्य विकिरण को अधिक से अधिक परावर्तित किया जा सके।
- अगर सड़कें सँकरी हैं तो भवनों की ऊँचाई को सड़कों की चौड़ाई के बराबर करना भी बताया गया है, इससे ताप नियंत्रण में मदद मिलती है। निर्माणकारी गतिविधियों के समय हर 7 वर्ग किमी. पर जल निकाय और खुले स्थान के लिये 1 वर्ग किमी का क्षेत्र छोड़ना भी इसमें शामिल है। फुटपाथों का निर्माण कुछ इस तरह से करने की बात हुई है कि बारिश के मौसम में ये जल अवशोषण में भी सहायक भूमिका निभाएँ।
- प्लानिंग के समय आर्थिक असमानता के मुद्दे को भी ध्यान में रखना आवश्यक है ताकि समाज का कोई भी वर्ग हाशिये पर न चला जाए। क्योंकि, आपदा के समय इन वर्गों के प्रभावित होने की सबसे ज्यादा संभावना होती है। आवासीय सुविधाओं में गरीबों के रहने के लिये ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये जहाँ आधारभूत सुविधाओं की कमी न हो। इंडोनेशिया में इसी प्रकार का एक सोशल हाउसिंग प्रोजेक्ट लाया गया है जो बेहतर वायु संचार और गुणवत्तापूर्ण जीवन का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है।
- भारत की जियो-टेक्टॉनिक्स स्थिति में भी बदलाव आ रहा है। ऐसी स्थिती में दिल्ली में अगर एक मध्यम तीव्रता का भूकंप भी आता है तो आपदा की भयंकरता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। राजधानी की नयी निर्मित इमारतों में शायद ही नेशनल बिल्डिंग्स कोड, भारत का सुभेद्यता एटलस 2006 और भवन उप-नियमों का पालन किया गया है ।
- जहाँ एक तरफ शहरी बुनियादी ढाँचे के निर्माण के समय भवन मानकों को भूकंप प्रतिरोध संबंधित सुरक्षा मानकों का पालन करना चाहिये वहीं दूसरी तरफ बाढ़ आपदा प्रबंधन के समय हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भवनों और सड़कों के निर्माण के लिये शहरों में स्थित परंपरागत जल निकासी तंत्रों तथा विभिन्न जल निकायों मसलन झील, तालाब और आर्द्रभूमियों का अतिक्रमण न हो। नदी तल और बाढ़ मैदानों के अतिक्रमण को रोकने के लिये River Regulation Zone नोटिफिकेशन को प्रभावी बनाये जाने की आवश्यकता है। इसे पर्यावरण मंत्रालय ने राज्यों के लिये जारी किया था जिसका उद्देश्य बाढ़ के मैदानों में विकास संबंधी कार्यों का विनियमन करना था
- इसके साथ ही महानगरों का जल निकासी तंत्र प्रभावी होना चाहिये ताकि वर्षा का पानी तेजी से निकल सके। वर्षा के अतिरिक्त जल के संग्रहण के लिये शहरी भवनों में रेन हार्वेस्टिंग सिस्टम का अनुपालन जरूरी है। शहर में स्थित जल निकायों और जल मार्गों का समग्र रूप से सर्वेक्षण होना चाहिये।
- केन्द्र सरकार इसरो की मदद से अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल शहरी नियोजन प्रक्रिया के आधुनिकीकरण में करना चाह रही है। नेशनल रिमोर्ट सेंसिंग सेंटर द्वारा शहरों का मानचित्रण किया जाएगा जो बेहतर मास्टर प्लान तैयार करने में मदद करेगा। इससे भारतीय क्षेत्रों का अध्ययन कर बाढ़ की भविष्यवाणी की जा सकेगी।
- साथ ही यह शहर की जरूरतों का आकलन करने में सक्षम होंगे। इसरो के ‘भुवन पोर्टल’ पर अपलोड किये गये शहरों के प्लान, प्रोजेक्ट्स संबंधी विवरण तक लोगों की पहुँच भी सुनिश्चित हो सकेगी। इन सबके साथ इकोलॉजिकल हॉट-स्पॉट की मैपिंग कराये जाने की जरूरत है ताकि पर्यावरणीय संतुलन स्थापित किया जा सके।
- इन सबके अलावा हमें अपनी कुछ नीतियों में परिवर्तन करने की भी जरूरत है। विश्व के कुछ देशों मसलन कनाडा के टोरंटो, अमेरिका के लॉस एंजिलस और फ्राँस के पेरिस ने इस संबंध में कुछ उदाहरण पेश किये हैं। टोरंटो ने एक खास ऊँचाई वाली सभी नई इमारतों में ग्रीन रूफ का निर्माण अनिवार्य कर दिया है। वहीं पेरिस ने एक कानून पारित कर हरित छतों के साथ-साथ कमर्शियल इलाकों की इमारतों पर सोलर पैनल लगाना अनिवार्य कर दिया है।
- भारत को इन देशों से सीखने की जरूरत है। इसके साथ ही अपने देश में शहरी विकास योजनाओं के लिये अपनाए गए टॉप टू डाउन दृष्टिकोण के अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण अब बॉटम टू अप दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की जरूरत है।
निष्कर्ष :
हम जानते हैं कि नगरीकरण विकास प्रक्रिया का ही एक अंग है। लेकिन इन शहरों का विकास आर्थिक संवृद्धि, रोजगारपरक सामाजिक परिवर्तन, पर्यावरणीय निम्नीकरण से निबटने वाला, अपशिष्ट प्रबंधन तथा स्थानों के उचित प्रयोग पर आधारित होना चाहिये। इसके लिये हमें एक ठोस शहरी नियोजन की तरफ सोचना होगा। साथ ही साथ हमें ग्रामीण विकास की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है ताकि शहरों पर दबाव कम पड़े। नागरिकों की सक्रियता एवं बेहतर सुविधाओं की मांग भी शहरों को सही आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
- भारत में नागरिकता से सम्बंधित नया क़ानून : कारण , व्यावहारिकता एवं प्रभाव
हाल ही में संसद ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 पारित किया, जो राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद अधिनियम बन गया है।
- नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 को नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करने के लिये लाया गया है।
- नागरिकता अधिनियम, 1955 नागरिकता प्राप्त करने के लिये विभिन्न आधार प्रदान करता है। जैसे- जन्म, वंशानुगत, पंजीकरण, देशीयकरण और क्षेत्र इत्यादि।
- इसके अलावा यह भारत के विदेशी नागरिक (Overseas Citizen of India-OCI) कार्डधारकों के पंजीकरण और उनके अधिकारों को नियंत्रित करता है।
- OCI भारत यात्रा के लिये पंजीकृत प्रणाली को बहुउद्देशीय, आजीवन वीज़ा जैसे कुछ लाभ प्रदान करता है।
- हालाँकि अवैध प्रवासियों के लिये भारतीय नागरिकता प्राप्त करना प्रतिबंधित है।
- अवैध अप्रवासी से तात्पर्य एक ऐसे विदेशी व्यक्ति से है जो वैध यात्रा दस्तावेज़ों जैसे कि वीज़ा और पासपोर्ट के बिना देश में प्रवेश करता है या फिर वैध दस्तावेज़ों के साथ देश में प्रवेश करता है, लेकिन अनुमत समयावधि समाप्ति के बाद भी देश में रुका रहता है।
- अवैध प्रवासी पर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है और उसे निर्वासित या कैद किया जा सकता है।
- सितंबर 2015 और जुलाई 2016 में सरकार ने अवैध प्रवासियों के कुछ समूहों को कैद या निर्वासित करने से छूट दी।
संशोधन अधिनियम के प्रमुख प्रावधान :
- विधेयक में किये गये संशोधन के अनुसार, 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों एवं ईसाइयों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा।
- इन प्रवासियों को उपरोक्त लाभ प्रदान करने के लिये केंद्र सरकार को विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 में भी छूट प्रदान करनी होगी।
- 1946 और 1920 के अधिनियम केंद्र सरकार को भारत में विदेशियों के प्रवेश, निकास और निवास को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करते हैं।
- पंजीकरण या देशीयकरण द्वारा नागरिकता: अधिनियम किसी भी व्यक्ति को पंजीकरण या देशीयकरण द्वारा नागरिकता प्राप्ति के लिये आवेदन करने की अनुमति प्रदान करता है लेकिन इसके लिये कुछ योग्यताओं को पूरा करना अनिवार्य है। जैसे-
- आवेदनकर्त्ता आवेदन करने के एक वर्ष पहले से भारत में रह रहा हो या उसके माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक हो, तो वह पंजीकरण के बाद नागरिकता के लिये आवेदन कर सकता है।
- स्वाभाविक रूप से नागरिकता प्राप्त करने की योग्यता में से एक यह है कि व्यक्ति आवेदन करने से पहले एक निश्चित समयावधि से भारत में रह रहा हो या केंद्र सरकार में नौकरी कर रहा हो और कम-से-कम 11 वर्ष का समय उसने भारत में बिताया हो।
- इस योग्यता के संबंध में विधेयक में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों एवं ईसाइयों के लिये एक प्रावधान है। व्यक्तियों के इन समूहों के लिये 11 साल की अवधि को घटाकर पाँच साल कर दिया जाएगा।
- नागरिकता प्राप्त करने पर: (i) ऐसे व्यक्तियों को भारत में उनके प्रवेश की तारीख से भारत का नागरिक माना जाएगा और (ii) उनके खिलाफ अवैध प्रवास या नागरिकता के संबंध में कानूनी कार्यवाही बंद कर दी जायेगी।
संशोधित अधिनियम की व्यावहारिकता
- अवैध प्रवासियों के लिये नागरिकता का यह प्रावधान संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। इन आदिवासी क्षेत्रों में कार्बी आंगलोंग (असम), गारो हिल्स (मेघालय), चकमा जिला (मिज़ोरम) और त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र जिला शामिल हैं।
इसके अलावा यह बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत ‘इनर लाइन’ में आने वाले क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। इन क्षेत्रों में इनर लाइन परमिट के माध्यम से भारतीयों की यात्राओं को विनियमित किया जाता है।
वर्तमान में यह परमिट प्रणाली अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड पर लागू है। मणिपुर को राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से इनर लाइन परमिट (Inner Line Permit- ILP) शासन के तहत लाया गया है और उसी दिन संसद में यह बिल पारित किया गया था।
- OCI के पंजीकरण को रद्द करना: अधिनियम में यह प्रावधान है कि केंद्र सरकार कुछ आधारों पर OCI के पंजीकरण को रद्द कर सकती है। इसमें शामिल हैं: (i) यदि OCI ने धोखाधड़ी द्वारा पंजीकरण कराया हो या (ii) यदि पंजीकरण कराने कि तिथि से पाँच वर्ष की अवधि के भीतर OCI कार्डधारक को दो साल या उससे अधिक समय के लिये कारावास की सज़ा सुनाई गई हो या (iii) यदि ऐसा करना भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के हित में आवश्यक हो।
विधेयक पंजीकरण को रद्द करने के लिये एक और आधार जोड़ता है, इस नए आधार के अनुसार, OCI ने केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित अधिनियम या किसी अन्य कानून के प्रावधानों का उल्लंघन किया है तो कार्डधारक को सुनवाई का अवसर दिये बिना OCI रद्द करने के आदेश नहीं दिया जाएगा।
संशोधन अधिनियम को लेकर चिंता
- उत्तर-पूर्व के मुद्दे:
- यह 1985 के असम समझौते का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि 25 मार्च, 1971 के बाद बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को धर्म की परवाह किये बिना देश से बाहर निकाल दिया जाएगा।
- आलोचकों का तर्क है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के आने से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (National Register of Citizens-NRC) का प्रभाव खत्म हो जाएगा।
- असम में अनुमानित 20 मिलियन अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं और उनके कारण राज्य के संसाधनों एवं अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक दबाव पड़ने के अलावा राज्य की जनसांख्यिकी में भी भारी बदलाव आया है।
- आलोचकों का तर्क है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है (जो नागरिक और विदेशी दोनों को समानता और अधिकार की गारंटी देता है) क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत संविधान की प्रस्तावना में निहित है।
- भारत में कई अन्य शरणार्थी हैं जिनमें श्रीलंका, तमिल और म्याँमार से आए हिंदू रोहिंग्या शामिल हैं लेकिन उन्हें अधिनियम के तहत शामिल नहीं किया गया है।
- अवैध प्रवासियों और सताए गए लोगों के बीच अंतर करना सरकार के लिये मुश्किल होगा।
- विधेयक उन धार्मिक उत्पीड़न की घटनाओं पर प्रकाश डालता है जो इन तीन देशों में हुए हैं जो उन देशों के साथ हमारे द्विपक्षीय संबंधों पर बुरा असर डाल सकता है।
- यह विधेयक किसी भी कानून का उल्लंघन करने पर OCI पंजीकरण को रद्द करने की अनुमति देता है। यह एक ऐसा व्यापक आधार है जिसमें मामूली अपराधों सहित कई प्रकार के उल्लंघन शामिल हो सकते हैं (जैसे नो पार्किंग क्षेत्र में पार्किंग)।
सरकार का दृष्टिकोण :
- सरकार ने स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक गणराज्य हैं जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं इसलिये उन्हें उत्पीड़ित अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता है।
- सरकार के अनुसार, इस विधेयक का उद्देश्य किसी की नागरिकता लेने के बजाय उन्हें सहायता देना है।
- यह विधेयक उन सभी लोगों के लिये एक वरदान के रूप में है, जो विभाजन के शिकार हुए हैं और अब ये तीन देश लोकतांत्रिक इस्लामी गणराज्यों में परिवर्तित हो गए हैं।
- सरकार ने इस विधेयक को लाने के कारणों के रूप में पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं सम्मान की रक्षा करने में धार्मिक विभाजन तथा बाद में नेहरू-लियाकत संधि की 1950 की विफलता पर भारत के विभाजन का हवाला दिया है।
- आज़ादी के बाद दो बार भारत ने माना है कि उसके पड़ोस में रह रहे अल्पसंख्यक उसकी ज़िम्मेदारी हैं।
- सबसे पहले विभाजन के तुरंत बाद और बाद में 1972 में इंदिरा-मुजीब संधि के दौरान भारत ने 1.2 मिलियन से अधिक शरणार्थियों को आश्रय दिया था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दोनों अवसरों पर केवल हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाई ही भारत की शरण आए थे।
- श्रीलंका, म्याँमार के अल्पसंख्यकों को इसमें शामिल न करने के सवाल पर सरकार ने स्पष्ट किया कि शरणार्थियों को नागरिकता देने की प्रक्रिया विभिन्न सरकारों द्वारा समय-समय पर अनुच्छेद 14 के तहत उचित योग्यता के आधार पर की गई है।
- जनवरी 2019 में सरकार ने असम समझौते की धारा-6 के कार्यान्वयन के लिये उच्च-स्तरीय समिति की बैठक बुलाई और समिति से आग्रह किया कि वह केंद्र सरकार को जल्द-से-जल्द अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये प्रभावी कदम उठाने हेतु प्रावधान करें।
- इस प्रकार सरकार ने असम के लोगों को आश्वासन दिया है कि उनकी भाषायी, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान संरक्षित रहेगी।
निष्कर्ष :
- अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या और इसकी संवैधानिकता का परीक्षण करने के लिये संविधान के संरक्षक होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय अब इस बात का भी परीक्षण करता है कि क्या अनुच्छेद 14 का परीक्षण किया गया है या नहीं, अधिनियम में किया गया वर्गीकरण उचित है या नहीं।
- भारतीय नागरिकता के मौलिक कर्त्तव्यों में अपने पड़ोसी देशों में सताए गये लोंगों की सुरक्षा करना शामिल है लेकिन सुरक्षा कार्य संविधान के अनुसार होना चाहिये।
- इसके अलावा पूर्वोत्तर के लोगों को यह समझाने के लिये और अधिक रचनात्मक ढंग से प्रयास किया जाना चाहिए कि इस क्षेत्र के लोगों की भाषायी, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का संरक्षण किया जाएगा।
- मृत्युदंड की प्रासंगिकता एवं व्यावहारिकता
समाज की संरचना और तंत्र को सुचारु रूप से क्रियान्वित करने हेतु संस्थागत विधानों का सृजन किया गया जिसमें समाज के सभी वर्गों के हितों के संरक्षण, समाज की अनवरत प्रगति और संस्थाओं के बेहतर निष्पादन जैसे आयामों को एकीकृत किया गया है। संस्थागत विधानों के पारंपरिक स्वरूप में कालक्रम के साथ ही आधुनिक रूप से विकसित और व्यवस्थित संविधान का निर्माण हुआ जिसमे मानव समाज के हितों और अधिकारों को मूल अधिकारों के नाम से संकलित किया गया। समाज की प्रगति जारी रखने हेतु कई प्रकार के संस्थागत और व्यक्तिगत प्रावधान किये गए हैं जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य बेहतर तारतम्यता स्थापित की जा सके। समाज की प्रगति और मूल अधिकारों की तारतम्यता के नवीन परिदृश्य के आलोक में मृत्युदंड का विषय वैधानिक पटल पर उभर कर आया है जिसमें सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने और किसी भी मानव के जीवन के अधिकार के मध्य द्वंद की स्थिति बनी हुई है।
मृत्युदंड और भारत
- मृत्युदंड (Capital Punishment) विश्व में किसी भी तरह के दंड कानून के तहत किसी व्यक्ति को दी जाने वाली उच्चतम सज़ा होती है। हालाँकि भारत में मृत्युदंड की सज़ा का इतिहास काफी लंबा है, किंतु हाल के दिनों में इसे खत्म करने को लेकर भी कई आंदोलन किये गए हैं।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 में आपराधिक षड्यंत्र, हत्या, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने, डकैती जैसे विभिन्न अपराधों के लिये मौत की सज़ा का प्रावधान है। इसके अलावा कई अन्य कानूनों जैसे- गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में भी मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-72 में मृत्युदंड के संबंध में क्षमादान का प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद के तहत भारत के राष्ट्रपति को कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार है।
- इसी प्रकार संविधान का अनुच्छेद-161 राज्य के राज्यपाल को कुछ विशिष्ट मामलों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार देता है।
- साथ ही यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि एक सत्र न्यायालय मृत्युदंड देता है, तो सर्वप्रथम इसकी पुष्टि राज्य विशेष के उच्च न्यायालय द्वारा की जाएगी और उसके पश्चात् ही सज़ा दी जाएगी।
- 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उन 59 देशों से मौत की सज़ा पर रोक लगाने के लिये आग्रह करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जो अभी भी इसे बनाए हुए हैं। ज्ञात हो कि भारत इन्हीं देशों में से एक है।
क्या मृत्युदंड को समाप्त किया जाना चाहिये?
- यह एक प्रचलित अवधारणा है कि समय के साथ दंड विधान भी अधिक नरम होते जाते हैं और क्रूरतम प्रकृति की सज़ा क्रमशः चलन से बाहर हो जाती है।
- यह धारणा इस बुनियाद पर टिकी है कि मानव समाज निरंतर सभ्य होता जाता है और एक सभ्य समाज में ऐसा कोई कानून शेष नहीं रहना चाहिये जो उस सभ्यता के अनुकूल न हो। फाँसी की सज़ा को भी इसी कसौटी पर परखा जाता है।
- विश्व के अधिकांश देशों ने अपने संविधान से मृत्युदंड के प्रावधान को समाप्त कर दिया है। विशेषज्ञों का मत है कि भारत को भी मृत्युदंड के प्रावधान को समाप्त कर देना चाहिये, क्योंकि इससे किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है।
- ऐसा कोई भी अध्ययन नहीं है जो यह स्पष्ट करता हो कि अपराध को रोकने में मृत्युदंड आजीवन कारावास की अपेक्षा अधिक कारगर है। अतः मात्र कल्पनाओं के आधार पर मृत्युदंड को अधिक कठोर नहीं माना जा सकता।
- मृत्युदंड की सज़ा सुनाए जाने से लेकर सज़ा दिये जाने तक की एक लंबी अवधि अपराधी के परिवार वालों के लिये भी यातनामय होती है। उनकी इस यातना के लिये कहीं-न-कहीं राज्य ही नैतिक रूप से ज़िम्मेदार होता है।
- एकत्रित आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2000 से वर्ष 2015 के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने 60 लोगों को मृत्युदंड की सज़ा दी और बाद में यह स्वीकार भी किया कि उनमें से 15 मामलों (25 प्रतिशत) में गलत निर्णय दिया गया है।
मृत्युदंड को समाप्त करने के प्रयास
- वर्ष 1931 में बिहार से निर्वाचित सदस्य बाबू गया प्रसाद सिंह द्वारा भारतीय दंड संहिता के तहत मृत्युदंड को समाप्त करने के लिये केंद्रीय विधानसभा में एक विधेयक पेश करने का प्रयास किया गया था।
- सभा में यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया और उसके एक दिन बाद ही 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को मृत्युदंड दे दिया गया।
- इसके पश्चात् वर्ष 1931 में ही कराची में अपने सत्र में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें मृत्युदंड को समाप्त करने की मांग की गई थी।
- वर्ष 1947 और 1949 के बीच संविधान सभा ने मृत्युदंड से संबंधित कई प्रश्नों पर विचार किया। बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने सभा में मृत्युदंड की समाप्ति का समर्थन किया था। हालाँकि संविधान सभा ने यह निर्णय न्यायपालिका और संसद पर छोड़ दिया था।
मृत्युदंड के पक्ष में तर्क
- मृत्युदंड के समर्थकों का मानना है कि इसकी संवैधानिकता को न केवल भारत में बल्कि अमेरिका जैसे उदार लोकतांत्रिक देशों में भी बरकरार रखा गया है। अतः सिर्फ यह मानकर मृत्युदंड की आवश्यकता से इनकार कर देना सही नहीं होगा कि कई ‘सभ्य’ देशों में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है।
- सामान्यतः हत्या जैसे गंभीर अपराधों को रोकने के लिये मृत्युदंड को सर्वश्रेष्ठ और अंतिम विकल्प के रूप में देखा जाता है। ज्ञात हो कि विधि आयोग ने भी अपनी 262वीं रिपोर्ट में मृत्युदंड की सज़ा को खत्म करने की सिफारिश नहीं की थी।
- समर्थक मानते हैं कि हत्या करने वाला व्यक्ति किसी के जीवन जीने का अधिकार छीन लेता है जिसके कारण उसके जीवन का अधिकार भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार मृत्युदंड एक प्रकार का प्रतिकार होता है।
- किसी भी सज़ा के प्रभाव का अंदाज़ा अपराधियों पर उसके असर से नहीं बल्कि आम नागरिकों पर पड़ने वाले उसके असर से लगाया जाना चाहिये।
- इसी से जुड़ा कांट का भी स्वतंत्र संकल्प का सिद्धांत है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति संकल्प स्वतंत्रता से युक्त है एवं वह जानता है कि समाज के पक्ष में वह जिस तरह के निर्णय लेता है, समाज भी उसके संबंध में वैसे ही निर्णय लेता है।
- इस सिद्धांत में यह बात निहित है कि समाज में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वाला व्यक्ति समाज से भी मृत्युदंड जैसे निर्णय की ही अपेक्षा रख सकता है।
- कई विशेषज्ञों का मानना है कि मृत्युदंड से समाज में यह धारणा पुष्ट होती है कि बुरे के साथ बुरा और अच्छे के साथ अंततः अच्छा ही होता है। तमाम सामाजिक समस्याओं से जूझ रहे समाजों में यह सिद्धांत व्यक्ति को सकारात्मक एवं धैर्यवान बनाता है।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय
- वर्ष 1980 के बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि मृत्युदंड की सज़ा मात्र अन्यान्यतम (The Rarest of The Rare) मामलों में ही दी जा सकती है।
- वर्ष 1983 के मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड के लिये निम्नलिखित मापदंडों को निर्धारित किया:
- अत्यंत क्रूर, कठोर और भयानक तरीके से हत्या के मामले में;
- यदि हत्या का उद्देश्य धन प्राप्त करना है;
- अनुसूचित जाति या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या करने पर;
- किसी निर्दोष बच्चे, असहाय महिला या गणमान्य व्यक्ति की हत्या करने पर।
- वर्ष 1989 के केहर सिंह बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कार्यपालिका की क्षमा शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
अतः हमें यह समझना होगा कि व्यावहारिक तौर पर ऐसी कोई व्यवस्था निर्मित नहीं की जा सकती जो कि मृत्युदंड से जुड़े सभी नैतिक प्रश्नों का समाधान कर दे। खासकर तौर पर ऐसे देशों में जो गंभीर किस्म के आतंकवाद और हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहे हों। मौजूदा दौर में यह सहमति बनने लगी है कि यदि मृत्युदंड देना ही हो तो कम-से-कम पीड़ा के साथ दिया जाना चाहिये। इस संदर्भ में कार्बन मोनोऑक्साइड या नाइट्रोजन जैसी गैसों या लेथल इंजेक्शंस के प्रयोग पर विचार किया जा सकता है। अंततः महात्मा गांधी ने कहा है कि ‘नफरत अपराधी से नहीं, अपराध से होनी चाहिये’।
- देश में बढ़ती इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या एवं समाधान
हमारे देश में ज़्यादातर लोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के ख़राब होने पर उन्हें खुले में फेंक दिया जाता है. यह इलेक्ट्रॉनिक कचरा भूजल और उपजाऊ जमीन को प्रदूषित कर सकता है. हाल ही में दिल्ली के कुछ शोध छात्रों ने पारिस्थितिकी तंत्र पर इलेक्ट्रॉनिक कचरे के प्रभाव का अध्ययन किया है, जिसमे पता चला है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे की वजह से भूमि की ऊपरी और निचली परत प्रदूषित हो रही है. इन परतों में कॉपर, कैडमियम, क्रोमियम, लेड और जिंक जैसे खतरनाक रासायनों की मात्रा बढ़ने से भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है. कुछ स्थानों पर इलेक्ट्रॉनिक कचरों की अधिकता के कारण मिटटी की ऊपरी और निचली परतों में इन धातुओं की मात्रा में सैंकड़ों गुना इजाफा हुआ है. इससे पेड़ पौधों , सब्जियों, फलों और पेय जल में भी इलेक्ट्रॉनिक कचरे का जहर घुल रहा है.
खेद है कि इस समस्या की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है. हमारा राष्ट्र महाशक्ति बनाने के सपने देख रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका, चीन और यूरोप के बहुत सरे देश बड़ी चतुराई से अपने इलेक्ट्रॉनिक कचरे को हमारे यहाँ डंप कर रहे हैं. आंकड़ों के अनुसार देश में इलेक्ट्रॉनिक कचरे के कुल आयात का 42फीसदी अमेरिका, 30 फीसदी चीन, 18 फीसदी यूरोप तथा 10 फीसदी ताइवान , दक्षिण कोरिया , जापान जैसे देशों से आयात हो रहा है. 2016 में भारत में 18.5 लाख मीट्रिक टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकला है जो दुनिया भर में पैदा होने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरों का 12 फीसदी है. जबकि देश में इसका सिर्फ 2 फीसदी ही रिसाइकिल हो पाता है.
ई कचरे के प्रबंधन की जिम्मेदारी उत्पादक, उपभोक्ता एवं सरकार की सम्मिलित हिस्सेदारी होनी चाहिए . उत्पादक की जिम्मेदारी है कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थों का प्रयोग करें एवं ई कचरे के प्रशमन का उचित प्रबंधन करें. उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह ई कचरे को इधर उधर ना फेंक कर उसे रिसाइकल के लिए उचित संस्था को दे तथा अर्कार की जिम्मेदारी है कि वह ई कचरे के प्रबंधन के ठोस और व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे.
- संयुक्त राष्ट्र संघ के थिंक टैंक संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (UNU) द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे के विषय में “वैश्विक ई – वेस्ट मॉनिटर रिपोर्ट -2017 प्रस्तुत
- रिपोर्ट के मुताबिक भारत का इलेक्ट्रॉनिक उद्योग दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में से एक
- ई वेस्ट को बढाने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका
- ई वेस्ट को सामान्य रूप में ई कबाड़ या ई कचरे के रूप में जाना जाता है.
- ई वेस्ट आउटडेटिड इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे – पुराने ख़राब मोबाइल , टीवी, रेफ्रिजरेटर, लैपटॉप इत्यादि होते हैं .
- इनमे कुछ विषाक्त पदार्थ जैसे – लेड, मरकुरी , आर्सेनिक, कैडमियम इत्यादि भी शामिल है , जो कि स्वस्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से बेहद हानिकारक है.
- आर्सेनिक से त्वचा व फेफड़े का कैंसर जैसे हानिकारक बिमारियों का खतरा होता है.
- मरकुरी के आसानी से पर्यावरण में उपस्थित जैविक पदार्थों के साथ क्रिया करने के कारण हानिकारक मिथाइल – मरकुरी का निर्माण
ई वेस्ट के क्षेत्र में आने वाली चुनौतियाँ :
- ई वेस्ट मैनेजमेंट के नियमों तथा कानूनों का सुचारू रूप से सञ्चालन ना हो पाना
- ई वेस्ट सम्बंधित समस्याओं के विषय में लोगों के पास पर्याप्त जानकारी का अभाव
- इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को खुले में फेंकना या जलना
- आंकड़ों के मुताबिक लगभग 93 % ई वेस्ट की रीसाइकलिंग मलिन बस्तियों के लोगों द्वारा की जाती है
समाधान :
- रिसाइक्लिंग की बेहतर व्यवस्था
- लोगों में ई वेस्ट सम्बन्धी समस्या के विषय में जागरूकता
- HP जैसी कंपनी चिप में उपयोग किये जाने वाले हानिकारक पदार्थों के स्थान पर co2 का इस्तेमाल करने की विधि का विकास करेगी .
- शहरों में जगह जगह ई वेस्ट कलेक्शन सेण्टर की स्थापना
- इलेक्ट्रॉनिक कम्पनियों द्वारा उपभोक्ता को अपने उत्पाद में उपस्थित हानिकारक तत्वों के विषय में विस्तृत जानकारी देने की जरुरत .
भाग – 2
छत्तीसगढ़ राज्य स्तरीय के मुद्दे
( इस भाग में में कुल 04 मुद्दे हैं , जिनमे से अभ्यर्थी को किन्ही 02 मुद्दों पर अधिकतम 750 – 750 शब्दों में निबंध लिखना होगा l )
( There are a total of 04 issues in this part, out of which, the candidate has to write Essay on a maximum of 750 – 750 words on any 02 issues. )
- छत्तीसगढ़ में प्रदुषण की समस्या :कारण , प्रभाव एवं समाधान
- लगातार हो रही वनों की कटाई :
छत्तीसगढ़ में बीते दो सालों में वनों में कमी आई है। केंद्र सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में छत्तीसगढ़ में खनन और कब्जे की वजह से 53 वर्ग किलोमीटर वन कम हुआ है। इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट वर्ष 2013 के आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में पिछले दो सालों में 53 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन कम हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011 में राज्य में 55 हजार 674 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन था लेकिन वर्ष 2013 में यह घटकर 55 हजार 621 वर्ग किलोमीटर हो गया। आंकड़ों के मुताबिक इनमें से 10 वर्ग किलोमीटर अति घने वन और 46 वर्ग किलोमीटर घने वनों में कमी आई है, जबकि इस दौरान मात्र तीन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन लगाए गए।
इस दौरान राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर जिले में 19 वर्ग किलोमीटर में, दुर्ग में 12 वर्ग किलोमीटर में, दंतेवाड़ा जिले में 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, कांकेर में 9 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, कवर्धा में छह वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, सरगुजा और बिलासपुर में पांच पांच वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, कोरबा में चार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में और महासमुंद, रायगढ़ और राजनांदगांव जिले में दो दो वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन कम हुए हैं।
आंकड़ों के मुताबिक इन क्षेत्रों में होने वाले विकास के कामों, खनन और कब्जा होने की वजह से वनों में कमी आई है।
- बढ़ता हुआ औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण :
- 100 से अधिक स्टील रोलिंग मील , 90 से अधिक स्पंज आयरन प्लांट छत्तीसगढ़ में स्थापित हैं.
- राष्ट्रीय स्तर पर औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ चौथे पायदान पर है.
- वाहनों की बढ़ती हुई संख्या एवं वन-वे ट्रैफिक सिस्टम :
- वन-वे ट्रेफिक के कारण छत्तीसगढ़ के कई बड़े शहरों में वायु प्रदुषण लगातार बढ़ रहा है.
- वाहनों के अधिक चक्कर लगते हैं, जिसकी वजह से वाहनों से अधिक धुंआ उत्सर्जित होता है.
- अंडरग्राउंड सीवरेज सिस्टम शहरवासियों के लिए वरदान कम और अभिशाप ज्यादा साबित हो रहा है। पाइप लाइन बिछाने के लिए शहर के अमूमन सभी सड़कों की खुदाई की जाती है। इस दौरान महीनों तक सड़कों के किनारे मिट्टी को डंप कर रख दिया जाता है। सुबह से लेकर देर रात के शहर के आसमान के ऊपर धूल का गुबार छाया रहता था । आज भी शहरों के अधिकांश मोहल्लों में कमोबेश कुछ इसी तरह की स्थिति है।
- कोयले के महीन कण बेहद खतरनाक :
धूल व कोयले के सूक्ष्मकण बेहद खतरनाक होते हैं। सूक्ष्मकण नाक व मुंह के जरिए फेफडों में पहुंच जाता है। खून की नलियों के सहारे महीन कण खून को प्रदूषित करने लग जाते हैं। इससे लीवर,किडनी,आंख की बीमारी होने लगती है। खांसी व सर्दी की शिकायत भी होने लगती है।
- 50 वर्षों में 1.5 डिग्री बढ़ा तापमान
जिस तरह से पेड़ों की कटाई और ताप बिजली घर देश में खुलते जा रहे हैं। उससे कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन और ओजोन लेयर बढ़ा है। 50 वर्षों में करीब 1.5 डिग्री तामपान बढ़ा है। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ में जहां 44 डिग्री तापमान होता था वह आज की स्थिति में 46 से 47 डिग्री तक जा पहुंचा है। पर्यावरण परिवर्तन का असर मानसून पर भी प़ड़ने लगा है। इस वजह से अधिक बारिश और कम बारिश इसका एक कारण है।
पर्यावरण परिवर्तन के कारण:-
0 ताप बिजली घरों की स्थापना
0 गाड़ियों में ईंधन का अधिक इस्तेमाल
0 जंगल और पेड़ों की कटाई
0 शहरी और गांवों में कंक्रीटीकरण
0 कोयले आधारित उद्योगों की स्थापना
कैसे रोके पर्यावरण के असंतुलन को:-
0 आदमी और जानवरों में लड़ने की क्षमता बढ़ाना
0 जंगल को हरा भरा करना, ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाना
0 सीएनजी जैसे ईंधन के स्रोत पैदा करना
0 माइनिंग को अच्छा करना
0 मानव में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाना
0 उद्योगों के प्रदूषण को कम करना
- वन विभाग के तरफ से पर्यावरण परिवर्तन को कम करने की दिशा में वन, जल और कृषि क्षेत्रों में संवेदनशीलता स्टडी की पहल शुरू कर दी है। इसके लिए 10 हजार करोड़ का प्रोजेक्ट तैयार किया गया है। एग्रो क्लाइमेट जोन बांटकर काम किया जा रहा है। भारत शासन के सहयोग से संचालित ग्रीन इंडिया मिशन के तहत भारत शासन द्वारा चिन्हांकित 50 लैंड स्कैप में से 11 लैंड स्कैप छत्तीसगढ़ शामिल है। इसके लिए वन जन आधारित विकास योजना शुरू कर दी गई है। केन्द्र से पिछले वर्ष 9.72 करोड़ मिल चुके हैं वहीं इस वर्ष 40 से 50 करोड़ राज्य को मिलेगा। विश्व में उर्जा और पानी सीमित मात्रा में है। ऐसे में इसका सदुपयोग बेहतर तरीके से करने की जरूरत है।
- छत्तीसगढ़ की हवा में फैल रहे प्रदूषण को नापने के लिए पर्यावरण संरक्षण मंडल एयर मॉनीटरिंग सिस्टम विकसित करने की तैयारी में है। एयर मॉनीटरिंग सिस्टम को लगाने में बड़ी कंपनियों का भी सहयोग लिया जा रहा है। सोशल कार्पोरेश रिस्पांसबिलिटी (सीएसआर) के तहत एनटीपीसी, जिंदल, मोनेट, जीएमआर जैसी कंपनियों से संपर्क किया जा रहा है। जल्द ही ये कंपनियां भी सहयोग के लिए तैयार हो जाएंगी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने रायपुर को सबसे प्रदूषित शहर में शामिल किया है। छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा औद्योगिक प्रदूषण है। शहर क्षेत्र में मोटर साइकिल और कार की संख्या बढ़ने से भी प्रदूषण बढ़ा है। हवा में सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे तत्व बढ़ रहे हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में हर पांचवें बच्चे को अस्थमा है। स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में 1.39 लाख लोग सांस की बीमारियों से पीड़ित है .
- छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मंडल ने जो रिपोर्ट जारी की है उसके मुताबिक इस वर्ष दीपावली में पिछले वर्ष की तुलना में 27 फीसदी कम प्रदूषण दर्ज किया गया है। इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण के स्तर में भी पिछले वर्ष की तुलना में करीब 7 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। पर्यावरण संरक्षण मंडल ने भी ‘नो पटाखा’ पर जिला प्रशासन के माध्यम से जगह-जगह जागरूकता अभियान चलाया और इसमें समाज सेवी संगठनों और जागरूक नागरिकों की जिम्मेदारी तय की। इसका परिणाम कम वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के रुप में सामने आया।
- राज्य में तेजी से बढ़ रही गर्मी का एक कारण ग्रीन हाउस गैसों को भी माना जा रहा है, जो वाहनों से निकलने वाले धुएं से पैदा होते हैं।इसके असर को कम करने के लिए अब बैटरी से चलने वाले वाहनों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसी कड़ी में अब बैटरी चलित आटो (ई-रिक्शा) को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसे चार्ज करने में ही थोड़ा-बहुत खर्च होता है।
- छत्तीसगढ़ में किसानों को खेती में प्रवृत्त रखने की चुनौती एवं समाधान
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की स्थापना 1945 में हुई थी, जिसकी स्मृति में 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ का अत्यंत महत्वपूर्ण आयोजन है क्योंकि इस दिन पूरे विश्व में 150 से अधिक देश इसका आयोजन करते हैं और खाद्य सुरक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करते हैं। इसका उद्देश्य 2030 तक भूख से मुक्त विश्व का लक्ष्य प्राप्त करना है।
इस वर्ष की विषयवस्तु ‘प्रवास के भविष्य में बदलाव, खाद्य सुरक्षा में निवेश और ग्रामीण विकास’ हैं।
एफएओ का आकलन है कि भूख, गरीबी और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले मौसमी बदलाव की वजह से लगभग 763 मिलियन लोग अपने ही देश में किसानी छोड़कर बेहतर आजीविका अवसरों की तलाश में प्रवास कर जाते है। भारत की लगभग एक तिहाई आबादी यानी 300 मिलियन से अधिक लोग प्रवासी हैं।
भारत की जनगणना रिपोर्ट बताती है कि लगभग 84 प्रतिशत लोग अपने राज्य के भीतर ही प्रवास करते हैं और लगभग 2 प्रतिशत लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाते हैं। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों से बड़ी तादाद में लोग काम और बेहतर रोजगार की तलाश में भारत के विभिन्न हिस्सों में चले गए हैं। इनमें से ज्यादातर लोग अल्पकालीन प्रवासी हैं, जो थोड़े समय के लिए मजदूरी करते हैं और इसके बाद अपने मूल राज्य में वापस जाकर अपनी छोटी जोतों पर काम करते हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार जब किसानों से बातचीत की गई तब 45 प्रतिशत किसानों ने कहा कि वे खेती छोड़ना चाहते हैं। इसके कई कारण हैं। इनमें खासतौर से उत्पादकता में गिरावट और युवा पीढ़ी के लिए खेती में कोई आकर्षण न होने की वजह से लोग प्रवास करने पर मजबूर हो जाते हैं।
एफएओ ने आह्वान किया है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाएं ताकि ग्रामीण युवा अपने घरों को न छोड़ें। इसके लिए उन्हें लचीली आजीविका प्रदान करनी होगी ताकि प्रवास की चुनौतियों से निपटा जा सके। कृषि से इतर कारोबारी अवसर भी पैदा करने होंगे। इस संबंध में खाद्य प्रसंस्करण और बागवानी उपक्रमों के जरिए खाद्य सुरक्षा बढ़ाई जा सकती है। इस समय यह बहुत आवश्यक है कि ग्रामीण समुदाय को लंबी राहत देने के लिए सतत विकास की योजना तैयार की जाए।
राष्ट्रीय कृषक आयोग ने आह्वान किया है कि कृषि क्षेत्र में युवाओं को कायम रखने के लिए शिक्षित करना चाहिए। आयोग की सिफारिशों को मानते हुए 2007 में संसद ने राष्ट्रीय कृषि नीति को अपनाया था। इसमें कृषि में युवाओं की संलिप्तता बढ़ाने पर जोर दिया गया है। नीति में कहा गया है कि कृषि संबंधी सहयोगी उद्योगों के जरिए युवाओं को खेती में संलग्न किया जाए। 2014 में केन्द्र में राजग सरकार के आने के बाद इस संकट को दूर करने के लिए कई कदम उठाए गए। इस संबंध में मृदा स्वास्थ्य कार्ड, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना इत्यादि ऐसी कुछ योजनाएं हैं जो किसान समुदाय को राहत पहुंचा रही हैं। ये सभी कार्यक्रम प्रवास के संकट को कम करने का हल प्रदान कर रहे हैं, चाहे यह संकट जलवायु परिवर्तन से पैदा हुआ हो या वर्षा की कमी से फसल खराब होने के कारण पैदा हुआ हो।
सरकार ने एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है, जिसके तहत 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का कार्यक्रम तैयार किया गया है। इस समय देश के आजादी को 75 वर्ष पूरे होंगे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के विकास के लिए नए प्रयास कर रही है।
सबसे अनोखा कदम है ‘आर्या’ यानी अट्रैक्टिंग एंड रिटेनिंग यूथ इन एग्रीकल्चर। इसकी शुरूआत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने की है। इसका उद्देश्य है कि सतत आय का जरिया प्रदान करके ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं के लिए अवसर पैदा करना। इस पहल के जरिए बाजार तक पहुंच बनाई जाएगी, ताकि युवा पीढ़ी अपने गांव को लौट सके। कृषि विज्ञान केन्द्र इस योजना को 25 राज्यों में क्रियान्वित कर रहे हैं। इस तरह प्रत्येक राज्य के कम से कम एक जिले में यह योजना चल रही है। इस योजना के तहत कारगर तरीकों को प्रकट करना है जो युवाओं के लिए आर्थिक रूप से उपयोगी हों और जिनमें उन्हें आकर्षित करने की क्षमता हो।
‘आर्या’ की शुरूआत के समय प्रोफेसर एम.एस. स्वामीनाथन ने कहा था, ‘जब तक कृषि को आकर्षक और फायदेमंद नहीं बनाया जाएगा, तब तक युवाओं को इस क्षेत्र में कायम रखने में कठनाई होगी।’ जब मौजूदा किसान खेती करना छोड़ रहे हों, तो ऐसे समय में अगर कृषि को फायदेमंद न बनाया गया तो शिक्षित युवाओं को खेती में प्रवृत्त करना बहुत कठिन होगा। जब तक उत्पादकता या आय में इजाफा नहीं होगा, तब तक युवा इसकी तरफ आकर्षित नहीं होंगे।
स्किल इंडिया के अंग के रूप में एक अन्य पहल को भारतीय कृषि कौशल परिषद का समर्थन प्राप्त है। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि क्षेत्र की क्षमता बढ़ाना और प्रयोगशाला तथा खेतों के बीच के अंतराल को कम करना है। यह कार्य किसानों, खेत मजदूरों और संबंधी उद्योग में संलग्न लोगों के कौशल को बढ़ाकर किया जा रहा हैं।
आशा की जाती है कि इन योजनाओं के जरिए युवाओं को खेती की तरफ दोबारा आकर्षित करने में सफलता मिलेगी। अगर ऐसा न किया गया तो हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे जहां किसान परिवार से संबंधित युवा खेती को रोजगार के रूप में अपनाने से परहेज करेंगे। उन्हें इस बात का अनुभव है कि किसान का जीवन कितना कठिन होता है और कड़ी मेहनत के बावजूद उसे अच्छी आय प्राप्त नहीं होती। उन्हें यह अनुभव भी है कि सूखे के समय फसल का कितना नुकसान होता है और किसान कर्जदार हो जाते हैं।
सरकार द्वारा हाल में उठाए गए कदमों के कारण और खेती में तकनीकी नवाचारों के जरिए नए अध्याय की शुरूआत हो रही हैं। इन प्रयासों के जरिए तकनीकी संकंट दूर होने में मदद मिलेगी और उपभोक्ता के साथ सीधा संबंध स्थापित होगा, जिससे आय सुनिश्चित हो सकेगी। सरकार द्वारा 2016 में ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) की शुरूआत एक महत्वपूर्ण कदम है। यह अखिल भारतीय इलेक्ट्रोनिक कारोबारी पोर्टल है। इसके नेटवर्क के जरिए मौजूदा कृषि उत्पाद विपरण समिति (एपीएमसी) मंडियां कृषि जिंसों के लिए एक समेकित राष्ट्रीय बाजार के रूप में काम करती हैं।
देश की 25 प्रतिशत आबादी 18-29 वर्ष आयु वर्ग की है। इस आबादी में खेती की तरफ युवाओं को आकर्षित करने की आपार क्षमता मौजूद है। खेती युवा पीढ़ी को वह अवसर प्रदान करती है कि वह खाद्यान में इजाफा करके देशवासियों की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। सरकार को ऐसे सफल युवा किसानों को चिन्हित करना चाहिए और युवाओं को आकर्षित करने के लिए नीतिगत समर्थन प्रदान करना चाहिए, ताकि लाखों लोगों को सुरक्षित एवं पोषक भोजन प्राप्त होने का महान लक्ष्य पूरा हो सके।
इन परिस्थितियों के तहत हमें बहु-आयामी रणनीतियों की जरूरत है ताकि युवा किसानों को खेती में प्रवृत्त किया जा सके। ‘जय जवान-जय किसान’ सूत्रवाक्य की तरह हमें ऐसा सूत्रवाक्य बनाना चाहिए कि किसान भी धरती-माता का एक सिपाही है, जो मिट्टी की सुरक्षा करता है तथा देशवासियों का पेट भरता है।
- प्रदेश की सरकार के द्वारा 16 लाख 56 हजार किसानों का 6100 करोड़ रूपए अल्पकालीन कृषि ऋण माफ किया गया, धान का समर्थन मूल्य बढ़ाकर 2500 रूपए किया गया। इसी तरह 15 वर्षों की लंबित 207 करोड़ रूपए की सिंचाई कर की राशि माफ की गई है और तेन्दूपत्ता संग्रहण की दर 2500 रूपए से बढ़ाकर 4000 रूपए की गई है।
- किसानों को प्रमाणित बीज की उपलब्धता पर जोर दियाकिसानों को प्रमाणित बीज की उपलब्धता पर जोर दिया जाए
- किसानों को अतिरिक्त आमदनी दिलाने के लिए बस्तर में मक्का और जशपुर में कटहल के प्रोसेसिंग यूनिट तैयार किया जा रहा है l
- सोयाबीन नगदी फसल है, इस फसल के रकबे में विस्तार करने किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है l
- कृषको के मांग के अनुरूप बीज उपलब्ध कराने के लिए बीज निगम के फर्म एवं पंजीकृत कृषकों की संख्या बढ़ाकर अन्य प्रदेश में बीज विक्रय करने का कार्य किया जा रहा है l
- गन्ना उत्पादक कृषकों को समर्थन मूल्य पर की जा रही खरीदी की समीक्षा कर गन्ना से गुड़ बनाने वाले कृृषकों को सही कीमत दिलाने के लिए कार्य योजना तैयार किया जा रहा है l
- कृषकों की खेती जमीन का मिट्टी परीक्षण कर मृदा स्वास्थ्य कार्ड वितरण कराने एवं ‘श्री पद्धति‘ से धान का रोपा लगाने को बढ़ावा दिया जा रहा है तथा नदी, नालों के पानी को रोककर आस-पास के कृषकों के खेतों में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के संबंध में निरंतर कार्य किया जा रहा है l
मशरूम की खेती की नई तकनीकी
- इसमें जंगलों के बीच पैरे को पांच लेयर में आड़ा और तिरछा कर बिछाया गया। हल्का-हल्का पानी का छिड़काव रोजाना किया गया। तीन दिन पैरे में फंगस आने लगी और एक सप्ताह में मशरूम तैयार हो गया। हम 20 से 25 किलो पैरा के बंडल से करीब पांच किलो मशरूम तैयार कर सकते हैं।
- परंपरागत विधि में पैरे को गोल नुमा चाली में बांध कर एक बक्से में डाल कर तैयार किया जाता है। इससे मशरूम आने में भी समय लगता है और पैदावार भी कम होती है। एक महीने में करीब 10 किलो मशरूम की पैदावार की जा सकती है।
- बस्तर और सरगुजा में खेती का रकबा कम है। कारण है घने जंगल। बड़े-बड़े झाड़ होने के कारण कम धूप आती है और किसी फसल का उत्पादन बड़े स्तर पर नहीं किया जा सकता। इन्हीं कारणों से हमने जंगल में पैरे को जमीन में लंबा-लंबा बिछा दिया और मशरूम तैयार कर लिया। इस तरह मशरूम की फसल लेकर आदिवासी अपनी आय के स्रोत बढ़ा सकते हैं।
‘बाजार चौपाल‘ व्यवस्था
- शासन एवं प्रशासन को आम जनता व जरूरमंद व्यक्ति व समुदाय तक पहुंच बढ़ाने के लिए यह विशेष पहल की जा रही है।
- लोक सेवकों की पहुंच अपने कार्य क्षेत्र के साथ गांव और उनके पारा-मोहल्लों में होनी चाहिए।
- इसी सोच को दृष्टिगत रखते हुए लोक सेवकों का जिले के अंतर्गत साप्ताहिक हॉट बाजारों के दिवस, बाजार स्थल में सभी विभागों के क्षेत्रीय अमले को बैठकर जन परिवेदनाओं, गांवों व क्षेत्रों में विद्यमान स्थिति के संबंध में किसानों, ग्रामीणों, शासकीय महकमों के सदस्यों, ग्राम पटेल, ग्राम कोटवार, जनप्रतिनिधियों आदि से मांग, समस्या, शिकायतों को मौखिक रूप से पूछकर परिवेदना पंजी में अंकित कर आगे की कार्यवाही किये जाने योजना के रूप में बाजार-चौपाल का प्रस्ताव रखा गया है।
- इस व्यवस्था से कोई अतिरिक्त व्यय नहीं होगा। अधिकारी व कर्मचारियों के ग्रामीणों के साथ नियमित रूप से मिलते रहने से सामंजस्य, संवाद व सहयोग का वातावरण भी बनेगा।
- बाजार चौपाल के माध्यम से बाजार स्थल का प्रबंधन बेहतर होगा। बाजार में वनोपज व कृषि उपज के क्रय-विक्रय लोक सेवकों की उपस्थिति व निरीक्षण की व्यवस्था होने से किसानों का शोषण रुकेगा।
- कानून व व्यवस्था की स्थिति भी निर्मित नहीं होगी। इस तरह ग्रामीण स्तर पर बाजार स्थल वाले गांवों में जो और भी कमियां या बुराईयां विद्यमान होंगी, उन्हें भी ठीक किया जा सकेगा।
- बाजार चौपाल की व्यवस्था पर तैयार कर योजना का क्रियान्वयन करने से जन परिवेदनाओं का व्यावहारिक समाधान हो सकेगा।
- साथ ही संवदेनशील प्रशासन के सुशासन की व्यवस्था स्थापित की जा सकेगी।
ग्राम पंचायतों में गोठान (गोशाला) और चारागाह की व्यवस्था
- सरकार राज्य के 10 हजार से अधिक ग्राम पंचायतों में गोठान (गोशाला) और चारागाह बनाने जा रही है। इसकी शुरुआत मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र पाटन से हो सकती है।
- सभी ग्राम पंचायतों में पांच से सात एकड़ भूमि का चिन्हांकन 23-26 जनवरी के बीच किया जाएगा। इसके लिए ग्राम सभाओं की सहायता ली जाएगी।
‘चंद्रसूर‘ औषधि के साथ दूधारू पशुओं के लिए लाभदायक
- प्रदेश के किसानों को खासकर पशु पालकों को चारे की कमी न हो इसके लिए चन्द्रसूर की फसल की पैदावार इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय (आईजीकेवी) में शुरू किया गया है।
- चिया और किनवा की तरह चन्द्रसूर भी रबी में पैदा होती है। यह विभिन्न रोगों के उपचार में भी काम आती है।
- प्रति दिन 100 ग्राम चन्द्रसूर के बीज का पाऊडर भैंस को देने से दूध की पैदावार में वृद्धि होगी। इससे किसानों के आय में बढोतरी होगी।
- यह फसल मूलतः अफ्रीका महाद्वीप के इथोपिया की है।
- इसकी खेती यूरोप और अमेरिका सहित कई राष्ट्रों में हो रही है।
- देशभर के दूसरे राज्यों में इसकी खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- चन्द्रसूर के शोध में दूधारू पशुओं के आहार में शामिल करने से दूध में कार्बोहाईड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैकटॉस में वृद्धि होती है। जिससे दूध की गुणवत्ता अच्छी हो जाती है।
- यह किसान के लिए उसके पशुओं के दूध की गुणवत्ता की वृद्धि के अलावा मनुष्य की कई समस्याओं जैसे खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा व हड्डी को जोड़ने में बहुत ही लाभदायक है।
राज्य में मखाने की खेती
- बिहार के मिथिला अंचल में पैदा होने वाला मखाना अब छत्तीसगढ़ में पहुंच गया है।
- कृषि विज्ञान केंद्र धमतरी के वैज्ञानिक इसकी सफल खेती कर रहे हैं।
- उनके मार्गदर्शन में आसपास के कई किसान भी वृहद स्तर पर मखाने की खेती कर रहे हैं।
- इसके लिए खेत में 4 से लेकर 8 फीट तक पानी जमा होना चाहिए।
औषधीय पौधों का बढ़ा रकबा, कृषि विश्वविद्यालय में 130 पौध की पैदावार
- प्रदेश में हर्बल खेती को बढ़ावा देने के लिए इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में हर्बल मेडिशनल प्लांट की खेती का रकबा बढ़ा दिया गया है।
- औषधीय पौधों से किसानों की आय में बढ़ोतरी करने के लिए विवि समेत जिले के कृषि विज्ञान केंद्रों में पौधे लगाए जा रहे हैं।
- ज्ञात हो कि औषधीय गार्डन इन दिनों किसानों के बीच काफी मशहूर हो रहा है। किसानों के बीच की बढ़ती लोकप्रियता का कारण है किसानों को मेडिशनल प्लांट गार्डन से हर्बल खेती के बारे में जानकारी दी जा रही है।
- वहीं कृषि वैज्ञानिक किसान से नई तकनीक सीखकर खेतों में भी मेडिशनल गार्डन तैयार कर रहे हैं।
राज्य में पहला कृषि बजट 2012 में पेश किया गया। बजट में कृषि क्षेत्र के लिए 6244 करोड़ का प्रावधान किया गया था।
कृषि पंपों की फ्लैट बिजली दर के लिए अब अलग टैरिफ
- वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए आयोग को दिए टैरिफ प्रस्ताव में कंपनी ने इसके लिए अलग ‘एलवी-1 ए” कैटेगरी बनाने का आग्रह किया है। अभी तक कृषि व उससे जुड़े उद्योगों की बिजली दर एलवी-3 श्रेणी में रखी जाती थी।
- बिजली उपभोक्ताओं के हिसाब से अलग- अलग श्रेणी तय है। जैसे एलवी-1 में घरेलू उपभोक्ता आते हैं। एलवी-2 में गैर-घरेलू और एलवी-3 में कृषि व एलवी-4 में कृषि आधारित उद्योग। एलवी-5 में 15 से 100 एचपी तक के उद्योग। इसी तरह एलवी-6 श्रेणी में सर्वजनिक उपयोग आदि शामिल है। भारी उद्योगों, रेलवे समेत अन्य की अलग-अलग श्रेणी है।
- कृषि पंपों के लिए अलग श्रेणी बनाने के पीछे कंपनी ने तर्क दिया है कि सरकार ने कृषि पंपों के लिए फ्लैट दर पर बिजली देने का फैसला किया है। उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती सरकार ने किसानों को दो से तीन सौ स्र्पये मासिक फ्लैट दर पर बिजली देने की घोषणा की थी। इसे देखते हुए ही बिजली वितरण कंपनी ने बिजली दरों में यह नई श्रेणी बनाने का प्रस्ताव आयोग को दिया है।
- छत्तीसगढ़ में जल संसाधन : समस्याएं एवं उनका प्रबंधन
नये इरादों, नये वादों, नयी सोच और नई परिकल्पनाओं के साथ भारत के 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ का निर्माण 1 नवम्बर 2000 को हुआ था। नये जोश, नयी उमंग के साथ आम आदमी का सोचना था कि छत्तीसगढ़ के निर्माण से विकास के मार्ग खुल जायेंगे। छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों का धनी है, यहाँ महानदी, अरपा, शिवनाथ, इंद्रावती जैसी नदियाँ हैं। गाँवों से लेकर शहरों तक तालाब हैं। कृषि के लिये तरह-तरह की भूमि और जलवायु है, फिर भी एक फसली क्षेत्र की प्रधानता है। महान दार्शनिक टालस्टाय ने लिखा है कि महानदी की रेत में हीरे पाये जाते हैं। हीरा, बाक्साइट, लौह अयस्क, कोयला, चूना, डोलोमाइट, टिन, कोरण्डम तथा क्वार्टजाइट जैसे खनिजों के दोहन से राजस्व की भारी राशि प्राप्त हो रही है। छत्तीसगढ़ में जल है, जंगल है, खनिज है- बस जरूरत है इन संसाधनों के दोहन की।
छत्तीसगढ़ जल संसाधनों का धनी है, सतही जल और भूजल होते हुए उनका समुचित दोहन नहीं किया जा रहा है। माड़म सिल्ली, दुधावा, सोंढूर, रविशंकर सागर जैसे जलाशय स्थित हैं छत्तीसगढ़ में। कुल 1567 सिंचाई जलाशय तथा 45 हजार से अधिक ग्रामीण तालाब हैं। यहाँ नलकूप और कुओं की संख्या हर वर्ष बढ़ती जा रही है, किन्तु समुचित ढंग से प्रबंधन नहीं किया जा रहा है। इस प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 137 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से केवल 47.54 लाख हेक्टेयर में विभिन्न फसलों की खेती की जाती है। छत्तीसगढ़ में सिंचाई का प्रतिशत केवल 23 है, किन्तु यहाँ सिंचाई के क्षेत्र में विसंगति है। जहाँ एक ओर धमतरी जिले में सिंचाई का प्रतिशत 55 से अधिक है, वहाँ दूसरी ओर कोरिया, सरगुजा, कोरबा, जशपुर, बस्तर और दंतेवाड़ा जिलों में सिंचाई का प्रतिशत 5 से भी कम है।
कृषि जोत एवं सिंचाई :
छत्तीसगढ़ अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ में किसानों की संख्या 34.88 लाख थी, जबकि भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या 15.52 लाख थी। छत्तीसगढ़ शासन के भू अभिलेख विभाग से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार राज्य गठन के समय कुल 29.66 लाख कृषि जोतें थीं, जिनमें से 15.22 लाख जोतें (51 प्रतिशत) सीमांत थीं, जिनका औसत आकार केवल 0.22 हेक्टेयर था। लघु जोतों की संख्या 6.22 लाख (21 प्रतिशत) थी, जिनका औसत आकार 1.44 हेक्टेयर था। सीमित संसाधनों के कारण यहाँ के सीमांत किसान वर्ष में केवल एक ही फसल ले पाते हैं, जबकि लघु कृषक इतना खाद्यान्न उत्पादन कर लेते हैं कि उन्हें वर्ष भर के लिये वह पर्याप्त हो जाता है।
कृषि विकास के अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये सिंचाई का क्षेत्र बढ़ाना आवश्यक है क्योंकि उन्नत कृषि तकनीक के अंगीकरण में सिंचाई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
उपलब्ध जल क्षेत्र :
छत्तीसगढ़ तालाबों का प्रदेश कहलाता है, जहाँ जलाशयों और तालाबों में 1.44 लाख हेक्टेयर जल क्षेत्र उपलब्ध रहता है।
सामूहिक उद्वहन योजना :
सामूहिक उद्वहन योजना के अंतर्गत छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के चटौद तथा अन्य स्थानों पर अच्छी सफलता मिली है।
मनुष्यों, पशुओं और फसलों का जीवन पानी से जुड़ा है। कृषि उत्पादन वर्षाजल और सिंचाई जल से होता है। जल संसाधनों की उपयोगिता बढ़ाने के लिये निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए:-
- छत्तीसगढ़ में अधिकांश क्षेत्र में नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है, जहाँ जल का वितरण और नहरों का रख-रखाव ठीक तरीके से नहीं हो पा रहा है, जिसे तर्कसंगत और सुविधाजनक बनाने के लिये किसानों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
- जल-चक्र को नियमित बनाये रखने के लिये वन विनाश को रोका जाये और वन क्षेत्र में रोपण किया जाये। पर्यावरण हितैषी प्रयासों से अवृष्टि, अतिवृष्टि और वर्षा जल के अंतराल को नियंत्रित किया जा सकता है।
- वर्षाजल के संरक्षण हेतु डबरी तकनीक अपनानी चाहिए।
- नलकूप, कुआँ निर्माण शासन द्वारा विभिन्न योजनायें चलायी जा रही हैं, जिनका लाभ किसानों तक पहुँचाने के लिये छत्तीसगढ़ शासन के कृषि विभाग में पृथक प्रकोष्ठ बनाया जाना चाहिए।
सम्बंधित विभाग :
प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पेय जल उपलब्ध कराने हेतु योजनाओं को तैयार कर क्रियान्वयन तथा नगरीय क्षेत्र में नगरीय निकायों की आवश्यकता के अनुरूप जल प्रदाय योजना तैयार कर क्रियान्वयन करने का उत्तरदायित्व लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग का है .
राज्य जल संसाधन विकास नीति :
जल संसाधनों का विकास प्रमुखत: पेयजल, कृषि तथा औद्योगिक प्रयोजन के लिए आवश्यक है। जल संसाधनों के विकास में व्यापक निवेश आवश्यक होता है, किन्तु सामाजिक-आर्थिक कारणों से इस निवेश पर आमदनी (Return) अत्यंत कम होती है। जल संसाधनों के विकास हेतु बांधों के निर्माण सें डूब में आने वाले क्षेत्रों का वन भी प्रभावित होता हे तथा ग्रामवासी भी। डूब क्षेत्र में आने वाले ग्राम वासियों का प्रभावी पुनर्वास अत्यंत आवश्यक है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए शासन की ”जल संसाधन विकास नीति” के प्रमुख उद्देश्य निम्न है :- | ||
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जल संसाधनों की आयोजना (Water Resouces Planning) : राज्यकी वर्तमान एवं भविष्य के लिये जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु जल संसाधनों की आयोजना के उद्देश्य से राज्य शासन द्वारा :-
जल संसाधनों का प्रबंधन (Water Resources Management) : निर्मित योजनाओं के समुचित रख-रखरखाव को पूर्व में अपेक्षित प्राथमिकता नहीं दिये जाने के कारण विशाल भंडार वाले बांधों एवं नहरों की पूर्ण क्षमता का उपयोग संभव नहीं हो सका है निर्मित योजनाओं के बेहतर संधारण तथा नहरों के विस्तार से कम खर्च में अतिरिक्त सिंचाई सुविधा प्राप्त की जा सकती है। जल संसाधनों में बेहतर प्रबंधन हेतु राज्य शासन द्वारा :-
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :
नरवा, गरुवा, घुरुवा, बारी” के क्रियान्वयन से सम्बंधित कुछ तथ्य :
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- छत्तीसगढ़ में सहकारिता का विकास : प्रभाव एवं प्रबंधन के सन्दर्भ में
- सहकारी आंदोलन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ राज्य का गठन वरदान सिद्ध हुआ है। राज्य निर्माण के इन 17 वर्षो में प्रदेश में सहकारिता का महत्व काफी बढ़ा है। छत्तीसगढ़ में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदी का काम सहकारी समितियों के माध्यम से ही किया जाता है। इसी प्रकार सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का जिम्मा भी सहकारी क्षेत्र को दिया है। ये ही नहीं बल्कि अब प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के अंतर्गत गैस सिलेण्डर के वितरण की जवाबदारी भी सहकारी समितियों को प्रदान की जा रही है। राज्य शासन ने प्रो.बैद्यनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू कर मृतप्राय समितियों को पुनर्जीवित किया है, इस योजना के तहत सहकारी समितियों को 225 करोड़ की सहायता राशि प्रदान की गई है। इस योजना को लागू करने के लिए 25.09.2007 को राज्य शासन,नाबार्ड एवं क्रियान्वयन एजेन्सियों के मध्य एम.ओ.यू हुआ। इससे प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों को प्राणवायु मिल गया है। सहकारी आंदोलन को बढ़ावा मिलने से कृषि क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है तथा किसानों एवं ग्रामीणों के लिए सहकारिता के माध्यम से ज्यादा सुविधायें मिलने लगी है। यही वजह है कि कृषि क्षेत्र में फसल ऋण लेने वाले कृषकों की संख्या जो राज्य गठन के समय वर्ष 2000-01 में मात्र 3,95,672 थी जो अब बढ़कर 9,75,734 हो गई है ।
- फसल ऋण वितरण – प्रदेश में कृषि साख सहकारी समितियों की संख्या 1333 है, जिसमें प्रदेश के 27 जिलों के सभी 20796 गांवों के 26,09,905 सदस्य हैं। इनमें से 15,31,282 ऋणी सदस्य हैं। इन समितियों के माध्यम से चालू वित्तीय वर्ष में खरीफ फसल के लिए शून्य प्रतिशत ब्याज दर पर 3104.10 करोड़ रूपिये का ऋण वितरित किया गया है। छत्तीसगढ राज्य निर्माण के समय वर्ष 2000-01 में मात्र 190 करोड रूपए का ऋण वितरित किया गया था जो अब 16 गुणा से अधिक हो गया है। ऋण के रूप में किसानों को इस वर्ष खरीफ सीजन में 5,78,243 मिट्रिक टन रासायनिक खाद का वितरण किया गया है।
- खेती के लिए बिना ब्याज का ऋण – अल्पकालीन कृषि ऋण पर ब्याजदर पूर्व में 13 से 15 प्रतिशत था। वर्ष 2005-06 से ब्याजदर को घटाकर 9 प्रतिशत किया गया। वर्ष 2007-08 में 6 प्रतिशत ब्याज दर निर्धारित किया गया। 2008-09 से प्रदेश के किसानों को तीन प्रतिशत ब्याज दर पर अल्पकालीन ऋण उपलब्ध कराया गया । वर्ष 2014-15 से प्रदेश के किसानों को ब्याज रहित ऋण प्रदाय किया जा रहा है । गौपालन हेतु 1 प्रतिशत ब्याज दर पर 2.00 लाख की ऋण सीमा है एवं 2.00 से 3.00 लाख तक 3 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण सुविधा है । मत्स्य पालन हेतु 1 लाख तक 1 प्रतिशत ब्याज पर एवं 1.00 से 3.00 लाख तक 3 प्रतिशत ब्याज पर ऋण सुविधा है । उद्यानिकी हेतु 1.00 लाख तक 1 प्रतिशत एवं 1.00 से 3.00 लाख तक 3 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराई जा रही है ।
- रूपे किसान क्रेडिट कार्ड– किसानों की सुविधा के लिए सहकारी समितियों में किसान क्रेडिट कार्ड योजना लागू की गई है। किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से कृषक सदस्यों को 5 लाख रूपिये तक के ऋण उपलब्ध कराये जा रहे है। कुल 26,09,905 क्रियाशील सदस्यों में से 15,31,282 सदस्यों को अब तक किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराये जा चुके है जो कि कुल क्रियाशील सदस्यों का 58.67 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा के अनुरूप कैशलेश लेनदेन को बढ़ावा देने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड को रूपे किसान क्रेडिट कार्ड में तब्दील किया जा रहा है । अब तक प्रदेश के 10.04 लाख किसानों को रूपे केसीसी कार्ड जारी किये जा चुके हैं ।
- प्रधानमंत्री उज्जवला योजना –प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के अंतर्गत दुर्गम क्षेत्र में एल.पी.जी. सिलेण्डर वितरण का जिम्मा भी सहकारी समितियों को दिया गया है । इसके अंतर्गत प्रथम चरण में 49 सहकारी समितियों तथा द्वितीय चरण में 45 सहकारी समितियों का चयन किया गया है । इनमें से 41 सहकारी समितियों द्वारा एल.पी.जी. गैस सिलेण्डर का वितरण प्रारंभ कर दिया है । रायगढ़ एवं जशपुर जिले के 14 सहकारी समितियों को गैस सिलेण्डर गोदाम निर्माण हेतु अपेक्स बैंक से रू. 3.10 करोड़ की ऋण प्रदाय किया गया है ।
- धान खरीदी आन लाईन– शासन ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदी की जिम्मेदारी भी सहकारी समितियों को दी है । इसके लिए 1989 कम्प्यूटराईज्ड धान खरीदी केन्द्र स्थापित किये गये हैं। धान उपार्जन केन्द्रों के कम्प्यूटराईजेशन से खरीदी व्यवस्था में व्यवस्थित और पारदर्शी हो गई है । किसानों को धान का भुगतान ऑनलाईन किया जाता है । जिसकी सराहना देशभर में हो रही है । किसानों का ऋण अदायगी के लिए लिकिंग की सुविधा प्रदान की गई है। इससे सहकारी समितियां भी लाभान्वित हो रही है, क्योंकि लिकिंग के माध्यम से ऋण की वसूली आसानी से हो रही है। छत्तीसगढ राज्य निर्माण के समय वर्ष 2000-01 में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मात्र 4.63 मिट्रिक टन धान की खरीदी की गई थी जो 2016-17 में बढ़ कर 69.59 लाख मेट्रीक टन हो गई है । 1287 सहकारी समितियों में से 1162 समितियां द्वारा शून्य प्रतिशत शार्टेज पर धान खरीदी की गई ।
- भूमिहीन कृषकों को ऋण प्रदाय –सहकारी संस्थाओं के माध्यम से किसानों को टैक्टर हार्वेस्टर के अलावा आवास ऋण भी प्रदाय किया जा रहा है। नाबार्ड के निर्देशानुसार अब ऐसे भूमिहीन कृषकों को भी ऋण प्रदाय किया जा रहा है जो अन्य किसानों की भूमि को अधिया या रेगहा लेकर खेती करते है। छत्तीसगढ़ की यह प्राचीन परंपरा है। जब कोई किसान खेती नहीं कर सकता अथवा नहीं करना चाहता तो वह अपनी कृषि योग्य भूमि को अधिया या रेगहा में कुछ समय सीमा के लिए खेती करने हेतु अनुबंध पर दे देता है। चूंकि अधिया या रेगहा लेकर खेती करने वाले किसानों के नाम पर जमीन नहीं होती इसलिए उन्हें समितियों से ऋण नहीं मिल पाता था, लेकिन ऐसे अधिया या रेगहा लेने वाले किसानों का ”संयुक्त देयता समूह” बना कर सहकारी समितियों से ऋण प्रदान करने की योजना बनाई गई है।
- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना– प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों से ऋण लेने वाले सदस्यों के फसल का बीमा किया जाता है। खरीफ 2016 में इस योजना की शुरूआत की गई है । किसानों के लिए यह सबसे कम प्रीमियम दर पर सुरक्षा अधिकतम है । खाद्यान्न, दलहन, तिलहन फसलों के लिए एक मौसम, एक दर निर्धारित है । खरीफ फसल हेतु अधिकतम 2 प्रतिशत तथा रबी में 1.5 प्रतिशत प्रीमियम दर है । वाणिज्यिक बागवानी के लिए किसान की प्रीमियम दर अधिकतम 5 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ में खरीफ 2017 में सहकारी समितियों के संबंद्ध 1107063 किसानों को 5239.33 करोड़ रूपये का फसल बीमा कराया गया ।
- माइक्रो एटीएम– सहकारी बैकों द्वारा सभी 1333 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियों में माइक्रो एटीएम स्थापित किया जा रहा है। माइक्रो एटीएम द्वारा किसान रूपे केसीसी कार्ड एवं आधार नम्बर के माध्यम से राशि आहरण एवं जमा कर सकते हैं। माइक्रो एटीएम द्वारा मिनी स्टेट में मिनी स्टेटमेंट/बैलेंस इनक्वारी/फंड ट्रांसफर ई-केवायसी द्वाराध्आधार सीडिंग की सुविधा रहेंगी ।
- शाखाओं का विस्तार– राज्य गठन के समय सहकारी बैकों की मात्र 201 शाखायें थी, जो बढ़कर अब 273 हो गई है । इस प्रकार 17 वर्षो में कुल 72 नई शाखायें खुली है । इसमें से 7 शाखायें सारंगढ़, खरसिया, बरमकेला, पुसौर, धर्मजयगढ़, जशपुर एवं पत्थलगांव में इसी वर्ष स्थापित की गई है ।
- सहकारी शक्कर कारखाने –राज्य में सहकारिता के क्षेत्र में वर्तमान में चार शक्कर कारखाने संचालित हो रहे हैं. इनमें कबीरधाम जिले के ग्राम राम्हेपुर स्थित भोरमदेव सहकारी शक्कर कारखाना, जिला बालोद के ग्राम करकाभाट स्थित मां दंतेश्वरी शक्कर कारखाना, जिला सूरजपुर के ग्राम केरता में संचालित मां महामाया सहकारी शक्कर कारखाना और चौंथा कबीरधाम जिले के ग्राम बिशेषरा (विकासखण्ड-पंडरिया) में सरदार वल्लभ भाई पटेल शक्कर कारखाना शामिल हैं. ये सभी कारखानें राज्य गठन के बाद स्थापित हुए.
- हमर छत्तीसगढ़ योजना– इस योजना के अंतर्गत सहकारी समितियों एवं संस्थाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों को नया रायपुर क्षेत्र का भ्रमण कराया जा रहा है । जिससे उन्हें सहकारी क्षेत्र की प्रगति के साथ-साथ प्राचीन कला, संस्कृति एवं ग्रामीण विकास की झलक दिखाई जाती है ।
- राज्य में सहकारी समितियों द्वारा धान उपार्जन का कार्य किया जा रहा है। देश में छत्तीसगढ़ पहला राज्य है, जहां समर्थन मूल्य पर धान उपार्जन का कार्य कम्प्यूटर के द्वारा किया जा रहा है। इससे राज्य के किसानों को उनकी उपज के मूल्य का भुगतान समय पर प्राप्त हो पा रहा है। राज्य में वर्ष 2003-04 से 2016-17 तक लगभग 6 करोड़ 96 लाख मीटरिक टन धान की खरीदी की गई। इसके एवज में किसानों को 75 हजार 47 करोड़ रूपए का भुगतान किया गया। वर्ष 2016-17 में धान बेचने वाले 13 लाख 28 हजार किसानों को 2100 करोड़ रूपए का बोनस दिया गया है। इस वर्ष राज्य के 15 लाख 79 हजार किसानों ने पंजीयन कराया है। धान विक्रय करने वाले किसानों को समर्थन मूल्य के साथ-साथ प्रति क्विंटल तीन सौ रूपए बोनस का अतिरिक्त लाभ होगा।
- राज्य में सहकारी क्षेत्र में चार सहकारी शक्कर कारखाने लगाए गए हैं। इनमें भोरमदेव सहकारी शक्कर कारखाना कवर्धा जिले में है। इस कारखाने की क्रशिंग क्षमता तीन हजार पांच सौ टन प्रतिदिन है। दंतेश्वरी मैया सहकारी कारखाना बालोद में कार्यरत है। जिसकी क्रशिंग क्षमता एक हजार दो सौ पचास टन प्रतिदिन है। मां महामाया सहकारी शक्कर कारखाना अम्बिकापुर जिले में है, जिसकी क्रशिंग क्षमता दो हजार पांच सौ टन प्रतिदिन है। इसी तरह से सरदार वल्लभभाई पटेल सहकारी शक्कर कारखाना पण्डरिया जिला कबीरधाम में है, जिसकी क्रशिंग क्षमता भी दो हजार पांच सौ टन प्रतिदिन है। प्रदेश के सहकारी शक्कर कारखानों में लगभग चार लाख 62 हजार 576 क्विंटल शक्कर का उत्पादन वर्ष 2016-17 में किया गया है। इन कारखानों द्वारा उत्पादित शक्कर को राज्य की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए प्रदाय किया जा रहा है।
- राज्य के दूरस्थ इलाकों में प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के अंर्तगत रसोई गैस के वितरण की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए इन क्षेत्रों की सहकारी समितियों को गैस वितरक बनाया गया है। योजना के पहले चरण में पचास और दूसरे चरण में 46 समितियों का चयन किया गया है। प्रथम चरण में चयनित सभी समितियों में गैस गोदाम निर्माण कर गैस वितरण का कार्य प्रारंभ कर दिया गया है। दूसरे चरण में चयनित समितियों में आवश्यक कार्यवाही कर गोदाम निर्माण का कार्य किया जा रहा है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की इस महत्वपूर्ण योजना से जहां गरीब महिलाओं को धुंए से होने वाली परेशानी से मुक्ति मिलेगी, वहीं राज्य के दूरस्थ इलाकों में स्थित इन समितियों की आय बढ़ेगी।
- इस प्रकार हम देखते है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात सहकारिता के माध्यम से सुविधाओं का तेजी से विस्तार हुआ है। इससे किसानों मे तो खुशहाली आई ही है साथ ही साथ सहकारी आंदोलन को भी काफी गति मिली है।