HomeBlogConcept of Rita: वैदिक धर्म में सार्वभौमिक नियम का सिद्धांत

Concept of Rita: वैदिक धर्म में सार्वभौमिक नियम का सिद्धांत

🔸 ऋत (Rita) की अवधारणा — वेदों का नैतिक और प्राकृतिक नियम

गुरुत्वपूर्ण बिंदु:

  • ऋत का शाब्दिक अर्थ है ‘विधि’, ‘व्यवस्था’ और ‘सत्यक्रम’— प्रकृति (जैसे सूर्य का उदय, नक्षत्रों का क्रम) एवं नैतिक जगत दोनों में।

  • जैसे “ऋतस्य रक्षकः (Ritasya Gopta)” (ऋत का रक्षक) व “ऋतायु” जैसे शब्द वैदिक मंत्रों में आते हैं।

  • यह केवल प्राकृतिक संतुलन नहीं, बल्कि नीति, कर्तव्य और सामाजिक अनुशासन का भी आधार है।

  • ऋत → ब्रह्मण्‌डीय अखंड व्यवस्था → बाद में → कर्मवाद (Karmavada) का आगमन।


🔸 कर्म योग (Karma Yoga) —गीता का आत्मनिर्माण मार्ग

समझ का सारांश:

  • कर्म (action/duty) स्वभाव से मानव की नैसर्गिक प्रवृत्ति है—निष्क्रियता संभव नहीं।

  • गीता में यह स्पष्ट कहा गया है:

“तुम्हारा केवल कर्म करना (action) है, उसका फल (reward) तुम्हारा अधिकार नहीं। न ही कर्म त्याग करने में तुम्हारा कोई लाभ है।”
— (गीता)

  • निष्काम कर्मयोग

    • कर्म करें, लेकिन फल की इच्छा न रखें।

    • फलों की चाह से उत्पन्न आसक्ति → तृष्णा → क्रोध → मोह → स्मृति-क्षय → बुद्धि-क्षय की श्रृंखला होती है।

    • निष्काम कर्म बंधन से मुक्ति की ओर मार्ग प्रशस्त करता है।


🔸 स्वधर्म (Swadharma) — व्यक्तिगत और सामाजिक कर्तव्यों का सिद्धांत

मुख्य बिंदु:

  • “स्व” = आत्मा/स्वभाव, “धर्म” = उपयुक्त कर्तव्य या नैतिक-अनुशासन।

  • समाहरणीय धर्म, जिसमें हर व्यक्ति का वर्ग (वर्ण), अवस्था (आश्रमा), परिस्थिति (आपद), काल (युग), स्थिति आदि द्वारा कर्तव्य निर्धारित होते हैं।

  • गीता में वर्ण व्यवस्था में कर्मोद्धेश्य (quality + action) पर बल दिया गया—जन्म नहीं, स्वभाव और कर्म ही वर्ग का आधार।

  • शांति, समरसता और नैतिक स्थिरता के लिए स्वधर्म का पालन, स्वकर्म से श्रेष्ठता प्राप्त होती है।


🔸 स्थितप्रज्ञा (Sthitpragya) — गीता में समर्थ, स्थिर बुद्धि का आदर्श

परिभाषा:

  • स्थित = स्थिर, प्रज्ञा = बुद्धि → स्थिर-बुद्धि की प्राप्ति (ज्ञान-योग, भक्ति-योग, कर्म-योग आदि से)।

  • ऐसे व्यक्ति में सयंम, आत्मबल, निश्चित मानसिक स्थिति, सुख-दुःख पर संतुलित दृष्टिकोण होता है।

लक्षण:<br>

  1. व欲–absence of desire: कोई वासनाएँ उत्पन्न नहीं होतीं।

  2. समदृष्टि: सुख/दुःख में मानसिक असंतुलन नहीं।

  3. जितेन्द्रियता: इन्द्रियों पर नियंत्रण।

  4. कर्मशील पर निर्लिप्त: कर्म करते रहने के बावजूद उनसे ग्रस्त नहीं होता।

  5. समाध्यावस्था में जाग्रत बुद्धि: साक्षी भाव में कर्म और जागृति जारी रहती है।

  6. जीवनोपयोगी कर्म: कर्म की निरंतरता बनी रहती है, पर फल की इच्छा या परिणाम की चिंता से मुक्त रहता है।


सारांश सारणी (Comparison):

अवयव प्रमुख तत्व
ऋत (Rita) प्राकृतिक और नैतिक क्रम; सार्वत्रिक कर्म-बिन्यास
कर्मयोग निष्काम कर्म के माध्यम से बंधनों से मुक्ति
स्वधर्म व्यक्तिगत और सामाजिक कर्तव्यों का स्वभाव आधारित निर्धारण
स्थितप्रज्ञा संतुलित बुद्धि, संत द्वारा जाग्रत समाधि, कर्मशील लेकिन निर्लिप्त स्थिति

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