HomeBlogगौतम बुद्ध के संदेश और उनकी दार्शनिक भूमिका

गौतम बुद्ध के संदेश और उनकी दार्शनिक भूमिका

🔸 प्रतित्यसमुत्पाद (Pratityasamutpada) – बौद्ध दर्शन का मूल सिद्धांत

🔹 अर्थ:

  • प्रतित्यसमुत्पाद = प्रतित्य (आश्रित होना) + समुत्पाद (उत्पन्न होना)

  • अर्थ: “जब यह होता है तभी वह उत्पन्न होता है।”

  • इसे नियत कारणवाद (Doctrine of Dependent Origination) भी कहते हैं।

🔹 12 कारणों की शृंखला (द्वादश निदान)

गौतम बुद्ध ने दुख के उत्पत्ति की प्रक्रिया को 12 कारणों की शृंखला में बताया है:

अविद्या → संस्कार → विज्ञान → नाम-रूप → षडायतन → स्पर्श → वेदना → तृष्णा → उपादान → भव → जाति → जरा-मरण (दुख)

📌 दूसरे आर्यसत्य में दुख के कारण बताए गए हैं (अविद्या प्रमुख कारण है)
📌 तीसरे आर्यसत्य में बताया गया है कि अविद्या के नष्ट होने पर दुख भी समाप्त हो जाता है।

🔹 निष्कर्ष:

  • संसार में हर घटना का कारण होता है।

  • कोई चीज स्वतः उत्पन्न नहीं होती।

  • यदि कारण समाप्त हो जाए, तो परिणाम (दुख) भी समाप्त हो जाता है।


🔸 क्षणिकवाद (Doctrine of Momentariness)

  • बुद्ध ने अनित्यत्व (impermanence) का सिद्धांत प्रतिपादित किया।

  • बाद के बौद्ध दर्शन में यह विचार विकसित होकर क्षणिकवाद बना।

🔹 उदाहरण:

  • दीपक की लौ – लगातार बदलती रहती है, फिर भी हमें एक जैसी लगती है।

  • नदी की धारा – हर क्षण नया जल आता है, पर लगता है कि धारा एक ही है।

📌 निष्कर्ष:

हर वस्तु, विचार और चेतना भी क्षणिक (क्षण-भर की) होती है।


🔸 न आत्मा सिद्धांत (No-Soul Theory / अनात्मवाद)

  • बौद्ध दर्शन में स्थायी आत्मा (permanent soul) की निषेध है।

  • इसे नैरात्म्यवाद या अनात्मवाद कहते हैं।

🔹 कारण:

सर्वं अनात्मकम्’ – संसार में कुछ भी आत्मा नहीं है।
आत्मा और पदार्थ दोनों क्षणिक घटनाओं का समूह हैं।

🔹 पाँच स्कन्ध (Five Aggregates) – आत्मा नहीं है:

  1. रूप (शरीर / पदार्थ)

  2. वेदना (अनुभूति)

  3. संज्ञा (पहचान / पहचानना)

  4. संस्कार (मानसिक प्रवृत्तियाँ)

  5. विज्ञान (चेतना)

📌 आत्मा इन्हीं पंच-स्कन्धों का क्षणिक समुच्चय है।


🔸 मीमांसा दर्शन – धर्म और अपूर्व का सिद्धांत

🔹 मूल उद्देश्य:

  • वेदों की व्याख्या और कर्मकांडों की विवेचना।

  • ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार किया गया है।

🔹 धर्म का अर्थ:

  • विधि-निषेध पर आधारित कर्मों को धर्म कहते हैं।

  • वेद ही यह निर्धारित करते हैं कि क्या करना है (धर्म) और क्या नहीं (अधर्म)।


🔸 अपूर्व का सिद्धांत (Doctrine of Apurva)

🔹 क्या है “अपूर्व”?

  • एक अदृश्य शक्ति, जो यज्ञ आदि कर्मों के फल को संचालित करती है।

  • यज्ञ करने से उत्पन्न हुई यह शक्ति भविष्य में फल देती है।

📌 ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है; अपूर्व स्वतः काम करता है।

🔹 मुख्य विचार:

  • यज्ञ जैसे कर्म अभी किए जाते हैं, लेकिन फल भविष्य में मिलता है।

  • यज्ञ समाप्त होने से पहले एक नई शक्ति (Apurva) उत्पन्न होती है।


🔸 अद्वैत वेदांत – शंकराचार्य का दर्शन

🔹 मूल विषय:

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है

  • जगत मिथ्या है और जीव भी ब्रह्म ही है


🔸 ब्रह्म के दो लक्षण (Lakshana)

1. तात्स्थ लक्षण (Tatastha Lakshana):

  • ब्रह्म जगत का कारण है (सृष्टि, पालन, संहार करता है)।

“जन्माद्यस्य यतः” – ब्रह्मसूत्र से सिद्ध

2. स्वरूप लक्षण (Svarupa Lakshana):

  • ब्रह्म = सच्चिदानंद (सत्य, चैतन्य, आनंद)

  • ये गुण नहीं, बल्कि स्वरूप हैं – यही उसका रूप है।


🔸 ब्रह्म के दो रूप (Forms of Brahma)

रूप विवरण
निर्गुण ब्रह्म निराकार, निर्विशेष, अद्वितीय, निर्गुण
सगुण ब्रह्म सृष्टि के हेतु रूप में – माया से युक्त

🔸 माया और अविद्या (Maya & Avidya)

🔹 माया:

  • ब्रह्म की शक्ति है जिससे यह मिथ्या संसार उत्पन्न होता है।

  • यह अनादि है, परंतु अनंत नहीं

  • यह दो शक्तियों से काम करती है:

  1. आवरण शक्ति (Concealment) – ब्रह्म की एकता को छिपाती है

  2. विक्षेप शक्ति (Projection) – ब्रह्म के स्थान पर संसार की अनुभूति कराती है

🔹 अविद्या:

  • व्यक्ति में व्यक्तिगत भ्रम – जिससे उसे विविधता का अनुभव होता है।

  • जब ज्ञान होता है तब अविद्या और माया समाप्त होती हैं।


सारांश तुलना (सार तालिका)

दर्शन मूल सिद्धांत आत्मा ईश्वर संसार
बौद्ध प्रतित्यसमुत्पाद नहीं (अनात्म) नहीं क्षणिक और दुखमय
मीमांसा वेद-आधारित कर्म है नहीं यज्ञ-कर्म फलदाता
अद्वैत वेदांत ब्रह्म ही सत्य ब्रह्म = जीव ब्रह्म ही माया का परिणाम

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