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वैदिक दर्शन में ब्रह्म, आत्मा और संसार की व्याख्या

🕉️ वेद – भारतीय साहित्य की प्राचीनतम निधि

वेदों का अर्थ और स्वरूप:

  • वेद’ शब्द का अर्थ है ज्ञान

  • यह ज्ञान उन ऋषियों द्वारा अनुभव किया गया और मंत्रों के रूप में प्रकट किया गया।

  • अपौरुषेय माने जाते हैं — किसी मनुष्य द्वारा रचित नहीं, बल्कि दिव्य अनुभूति का परिणाम।

  • न्याय दर्शन उन्हें ईश्वर निर्मित मानता है।

वेदों के दो भाग:

  1. मंत्र भाग – देवताओं की स्तुति में उच्चारित वाक्य।

  2. ब्राह्मण भाग – यज्ञों की प्रक्रिया और अर्थ की व्याख्या।


📜 चार वेदों का संक्षिप्त परिचय:

वेद मंत्रों का स्वरूप उपयोग पुजारी (ऋत्विज़)
ऋग्वेद पद्य (कविता रूप में) देवताओं की स्तुति में प्रयोग होता
यजुर्वेद गद्य रूप में यज्ञ की क्रियाओं में अध्वर्यु
सामवेद गान रूप में (संगीतमय) यज्ञों के अवसर पर गायन हेतु उद्गाता
अथर्ववेद गद्य व पद्य मिश्रित सामान्य जीवन, चिकित्सा, जादू-टोने आदि ब्राह्मा

त्रयी (Trayi) – ऋक्, यजुः और साम को मिलाकर कहा जाता है।
अथर्ववेद को प्राचीन काल में वेद नहीं माना जाता था, यह बाद में जुड़ा।


🔍 ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद: वेदों के दर्शनिक भाग

  • ब्राह्मण ग्रंथ – यज्ञों की प्रक्रियाओं का गद्य रूप में वर्णन।

  • आरण्यक – ऋषियों के वनवास काल की साधनात्मक चिंतन परंपरा।

  • उपनिषद – वैदिक ज्ञान का चरम बिंदु, आत्मा और ब्रह्म का गहन दार्शनिक विश्लेषण।


🔮 वेदों में दर्शन की प्रवृत्तियाँ

वेदों में दर्शन के तीन क्रमिक स्तर दिखाई देते हैं:

1. बहुदेववाद (Polytheism):

  • प्रकृति की शक्तियों को देवता का रूप देना (जैसे – अग्नि, इन्द्र, वरुण)।

  • देवताओं को तीन समूहों में बाँटा गया:

    • आकाश देवता – मित्र, वरुण

    • अंतरिक्ष देवता – इन्द्र, मरुत

    • पृथ्वी देवता – अग्नि, सोम

  • प्राकृतिक शक्तियों के प्रति भय, भक्ति और यज्ञ के माध्यम से कृपा प्राप्ति की भावना।


2. हेनोथिज़्म (Henotheism):

  • मैक्समूलर का सिद्धांत:
    जब किसी एक देवता की स्तुति होती थी, तो उसे ही सर्वश्रेष्ठ बताया जाता, अन्य देवताओं को गौण कर दिया जाता।

  • यह बहुदेववाद से एकेश्वरवाद की ओर एक मध्यवर्ती चरण था।


3. एकेश्वरवाद (Monotheism):

  • ऋषियों को केवल अनेक देवताओं में समाधान नहीं मिला।

  • वे एक मूल कारण, एक परम शक्ति की खोज में लगे रहे।

  • जैसे — “सत्य एक है, ऋषि उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं।”

  • ऋग्वेद का ‘विश्वदेव सूक्त’ सभी देवताओं को एकता में देखता है।


4. अद्वैतवाद (Monism):

  • केवल एक ईश्वर में विश्वास से भी आगे बढ़कर —
    ईश्वर और प्रकृति में कोई भेद नहीं, सब कुछ उसी परम तत्व का ही रूप है।

  • यह विचार उपनिषदों में पूर्ण विकसित हुआ, पर बीज रूप में वेदों (विशेषकर ऋग्वेद) में मिलता है।

इसके दो रूप:

  1. पैंथेइज़्म (Pantheism)

    • ईश्वर प्रकृति में ही व्याप्त है।

    • जैसे — पुरुष सूक्त: “पुरुष ही सत्य है।”

  2. कारणात्मक एकत्ववाद (Causal Monism)

    • सब घटनाओं का एक ही कारण है।

    • नासदीय सूक्त (ऋग्वेद) —

      “उस समय न सत्य था न असत्य, न मृत्यु थी न अमरता…”


📘 निष्कर्ष:

दर्शनिक प्रवृत्ति प्रमुख लक्षण
बहुदेववाद प्रकृति को देवता मानकर भक्ति, स्तुति और यज्ञ
हेनोथिज़्म एक देवता की विशेष स्तुति, बाकी की उपेक्षा
एकेश्वरवाद सभी देवताओं के पीछे एक ही परम शक्ति का अस्तित्व
अद्वैतवाद ब्रह्म और जगत में भेद नहीं, सब कुछ एक ही तत्व का रूप

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